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श्री ब्रह्म संहिता- Śrī Brahma-saṁhitā Hindi

श्री ब्रह्म संहिता (1) ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्॥ (2) चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्षलक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (3) वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षंबर्हावतं समसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्।कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (4) आलोलचन्द्रकलसद्ववनमाल्यवंशीरत्नागदं प्रणयकेलिकलाविलासम्।श्यामं त्रिभंगललितं नियतप्रकाशंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (5) अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्तिपश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति।आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (6) अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्‌आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (7) पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्योवायोरथापि मनसो मुनिङ्गवानाम्।सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (8) एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं-यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः।अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (9) यभ्दावभावितधियो मनुजास्तथैवसम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः।सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः स्तुवन्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (10) आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्‌ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (11) प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेनसन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (12) रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्‌नानावतारमकरोद्‌ भुवनेषु किन्तु।कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान्‌ योगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (13) यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-कोटिष्वशेषवसुधादि विभूतिभिन्नम्।तद्‌ ब्रह्म निष्कलमनंतमशेषभूतंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (14) माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूतेत्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना।सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वं विशुद्धसत्त्वंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (15) आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनःसुयः प्राणिनां प्रतिफलन्‌ स्मरतामुपेत्य।लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्रंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (16) गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्यदेवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येनगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (17) सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेकाछायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दूर्गा।इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (18) क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्‌सञ्जायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः।यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्‌गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (19) दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्यदीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा।यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभातिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (20) यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः।आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (21) यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः।विष्णुर्महान्‌ स इह यस्य कलाविशेषोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (22) भास्वान्‌ यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजःस्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र।ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्तागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (23) यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भद्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः।विघ्नान्‌ विहन्तुमलमस्य जगत्रयस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (24) अग्निर्मही गगनमम्बु मरुद्दिश श्चकालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि।यस्माद्‌ भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं चगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (25) यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणांराजा समस्तसुरमुर्तिरशेषतेजाः।यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (26) धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसिब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः।यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (27) यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-बन्धानुरूपफलभाजनमातनोती।कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजांगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (28) यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीतिवात्सल्यमोहगुरुगौरवसेवयभावैः।स िञ्चन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेतेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (29) श्रियः कान्ताः कान्तः परमापुरुषः कल्पतरवोद्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।कथा गानं नाटयं गमनमपि वंशी प्रियसखीचिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च॥ स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीभ्यश्च सुमहान्‌निमेषार्धाख्यो वाव्रजति न हि यत्रापि समयः।भजे श्वेतद्वीपं तमहमिह गोलोकमिति यंविदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये॥

महाप्रसादे गोविन्दे – Mahaprasade Govinde

यह प्रसाद मंत्र प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व गाया जाता हैं प्रसादम का अर्थ है “कृपा” भागवान को भोग लगाया हुआ प्रसाद भगवान की कृपा हैं । भगवान कृष्ण का प्रसाद भगवान श्री कृष्ण का अवतार माना जाता हैं । प्रसाद मंत्र (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे।स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे।तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई।सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। प्रसाद मंत्र हिंदी में -अर्थ के साथ (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे। तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्‌टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ भगवान्‌ कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो। (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

10 नाम अपराध – Naam Apradh ISKCON

दस नाम अपराधों को पद्म पुराण में इस प्रकार सूचीबद्ध किया गया है। चैतन्य- चरितमित्र (आदि लीला 8.24, तात्पर्य) में उद्धृत है। प्रत्येक वैष्ण्व भक्त को चाहिए कि इन दस प्रकार के अपराधों से सदा बच कर रहे, ताकि श्रीकृष्ण के चरण कमलों में प्रेम शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो, जो मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। (1) सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते।यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम्।। भगवान्नाम के प्रचार में सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले महाभागवतों की निन्दा करना। (2) शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादिसकलं।धिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः। शिव, ब्रह्मा आदि देवों के नाम को भगवान्नाम के समान अथवा उससे स्वतन्त्र समझना। (3) गुरोरवज्ञा । गुरु की अवज्ञा करना अथवा उन्हें साधारण मनुषय समझना। (4) श्रुतिशाñनिन्दनम्। वैदिक शास्त्रों अथवा प्रमाणों का खण्डन करना। (5) हरिनाम्नि कल्पनम्। हरे कृष्ण महामन्त्र के जप की महिमा को काल्पनिक समझना। (6) अर्थवादः। पवित्र भगवन्नाम में अर्थवाद का आरोप करना। (7) नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर् न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः। नाम के बल पर पाप करना। (8) धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः। हरे कृष्ण महामन्त्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म (कर्मकाण्ड) के समान समझना। (9) अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः शिवनामापराधः। अश्रद्धालु व्यक्त्ति को हरिनाम की महिमा का उपदेश करना। (10) श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः अहंममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत्अपि प्रमादः।। भगवन्नाम के जप में पूर्ण विश्वास न होना और इसकी इतनी अगाध महिमा श्रवण करने पर भी भौतिक आसक्ति बनाये रखना। भगवन्नाम का जप करते समय पूर्ण रूप से सावधान न रहना भी अपराध है।

श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् – Chaitanya Mahaprabhu Shiksha-Ashtakam

भगवान चैतन्य महाप्रभु ने केवल आठ श्लोक ही अपनी सम्पूर्ण शिक्षा के रुप में प्रदान किये जिन्हे “शिक्षाष्टक” कहते हैं । श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं  भगवान श्री कृष्ण  हैं जो आज से पांच सौ साल पहले एक भक्त के रूप के प्रकट हुए और भगवान के नाम का प्रचार किया। श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणंश्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनंसर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापिदुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये।मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा।पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-मदर्शनार्न्महतां करोतु वा।यथा तथा वा विदधातु लम्पटोमत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ शिक्षाष्टकम् हिंदी में – अर्थ के साथ (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए। (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्‌गद्‌ वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा- मदर्शनार्न्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।

दामोदर अष्टकम – Damodar Ashtakam

दामोदर अष्टकम सत्यव्रता मुनि द्वारा कहा गया है तथा इसे श्रील व्यासदेव जी ने लिखा हैं ।भगवान श्री कृष्ण का प्रिय माह  कार्तिक में वैष्णव प्रति दिन संध्या के समय दामोदर अष्टकम का गान करते हैं तथा दीप दान भी करते हैं । शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि कार्तिक मास में  दामोदर अष्टकम का पाठ करने से भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है।  दामोदर अष्टकम (1) नमामीश्वरं सच्चिदानंदरूपं लसत्कुण्डलं गोकुले भ्राजमानम्‌यशोदाभियोलूखलाद्धावमानं परामृष्टमत्यं ततो द्रुत्य गोप्या॥ (2) रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं कराम्भोज-युग्मेन सातङ्कनेत्रम्।मुहुःश्वास कम्प-त्रिरेखाङ्ककण्ठ स्थित ग्रैव-दामोदरं भक्तिबद्धम्॥ (3) इतीद्दक्‌स्वलीलाभिरानंद कुण्डे स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम्।तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वं पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे॥ (4) वरं देव! मोक्षं न मोक्षावधिं वा न चान्यं वृणेऽहं वरेशादपीह।इदं ते वपुर्नाथ गोपाल बालं सदा मे मनस्याविरस्तां किमन्यैः?॥ (5) इदं ते मुखाम्भोजमत्यन्तनीलै- र्वृतं कुन्तलैः स्निग्ध-रक्तैश्च गौप्या।मुहुश्चुम्बितं बिम्बरक्ताधरं मे मनस्याविरस्तामलं लक्षलाभैः॥ (6) नमो देव दामोदरानन्त विष्णो! प्रसीद प्रभो! दुःख जालाब्धिमग्नम्।कृपाद्दष्टि-वृष्टयातिदीनं बतानु गृहाणेश मामज्ञमेध्यक्षिदृश्यः॥ (7) कुबेरात्मजौ बद्धमूर्त्यैव यद्वत्‌ त्वया मोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च।तथा प्रेमभक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह॥ (8) नमस्तेऽस्तु दाम्ने स्फुरद्दीप्तिधाम्ने त्वदीयोदरायाथ विश्वस्य धाम्ने।नमो राधिकायै त्वदीय-प्रियायै नमोऽनन्त लीलाय देवाय तुभ्यम्॥ दामोदर अष्टकम हिंदी में – अर्थ के साथ (1) नमामीश्वरं सच्चिदानंदरूपं लसत्कुण्डलं गोकुले भ्राजमानम्‌ यशोदाभियोलूखलाद्धावमानं परामृष्टमत्यं ततो द्रुत्य गोप्या॥ जिनका सर्वेश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है, जिनके कपोलों पर मकराकृत कुंडल हिलडुल रहे हैं, जो गोकुल नामक दिवय धाम में परम शोभायमान हैं, जो (दधिभाण्ड फोड़ने के कारण) माँ यशोदा के डर से ऊखल से दूर दौड़ रहे हैं किन्तु जिन्हें माँ यशोदा ने उनसे भी अधिक वेगपूर्वक दौड़कर पकड लिया है- ऐसे भगवान्‌ दामोदर को मैं अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ।  (2) रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं कराम्भोज-युग्मेन सातङ्कनेत्रम्। मुहुःश्वास कम्प-त्रिरेखाङ्ककण्ठ स्थित ग्रैव-दामोदरं भक्तिबद्धम्॥ (माँ के हाथ में लठिया देखकर) वे रोते-रोते बारम्बार अपनी आँखों को अपने दोनों हस्तकमलों से मसल रहे हैं। उनके नेत्र भय से विह्वल हैं, रूदन के आवेग से सिसकियाँ लेने के कारण उनके त्रिरेखायुक्त कण्ठ में पड़ी हुई मोतियों की माला कम्पित हो रही है। उन परमेश्वर भगवान्‌ दामोदर का, जिनका उदर रस्सियों से नहीं अपितु यशोदा माँ के वात्सल्य-प्रेम से बंधा है, मैं प्रणाम करता हूँ।  (3) इतीद्दक्‌स्वलीलाभिरानंद कुण्डे स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम्। तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वं पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे॥ जो ऐसी बाल्य-लीलाओं के द्वारा गोकुलवासियों को आनन्द-सरोवरों में डुबोते रहते हैं, और अपने ऐश्वर्य-ज्ञान में मग्न अपने भावों के प्रति यह तथ्य प्रकाशित करते हैं कि उन्हें भय-आदर की धारणाओं से मुक्त अंतरंग प्रेमी भक्तों द्वारा ही जीता जा सकता है, उन भगवान्‌ दामोदर को मं कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।  (4) वरं देव! मोक्षं न मोक्षावधिं वा न चान्यं वृणेऽहं वरेशादपीह। इदं ते वपुर्नाथ गोपाल बालं सदा मे मनस्याविरस्तां किमन्यैः?॥ हे प्रभु, यद्यपि आप हर प्रकार के वर देने में समर्थ हैं, तथापि मैं आपसे न तो मोक्ष अथवा मोक्ष के चरम सीमारूप वैकुण्ठ में शाश्वत जीवन और ही (नवधा भक्ति द्वारा प्राप्त) कोई अन्य वरदान माँगता हूँ। हे नाथ! मेरी तो बस इतनी ही इच्छा है कि आपका यह वृंदावन का बालगोपाल रूप मेरे हृदय में सदा प्रकाशित रहे, क्योंकि इसके सिवा मुझे किसी अन्य वरदान से प्रयोजन ही क्या है?  (5) इदं ते मुखाम्भोजमत्यन्तनीलै- र्वृतं कुन्तलैः स्निग्ध-रक्तैश्च गौप्या। मुहुश्चुम्बितं बिम्बरक्ताधरं मे मनस्याविरस्तामलं लक्षलाभैः॥ हे प्रभु! लालिमायुक्त कोमल श्यामवर्ण के घुँघराले बालों से घिरा हुआ आपका मुखकमल माँ यशोदा के द्वारा बारंबार चुम्बित हो रहा है और आपके होंठ बिम्बफल की भांति लाल हैं। आपके मुखमंडल का यह सुन्दर दृश्य मेरे हृदय में सदा विराजित रहे। मुझे लाखों प्रकार के दूसरे लाभों की कोई आवश्यकता नहीं।  (6) नमो देव दामोदरानन्त विष्णो! प्रसीद प्रभो! दुःख जालाब्धिमग्नम्। कृपाद्दष्टि-वृष्टयातिदीनं बतानु गृहाणेश मामज्ञमेध्यक्षिदृश्यः॥ हे भगवान्‌, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे दामोदर, हे अनंत, हे विष्णु, हे नाथ, मेरे प्रभु, मुझपर प्रसन्न हो जाइये! मैं दुःखों के सागर में डूबा जा रहा हूँ। मेरे ऊपर अपनी कृपादृष्टि की वर्षा करके मुझ दीन-हीन शरणागत का उद्वार कीजिए और मेरे नेत्रों के समझ प्रकट हो जाइये।  (7) कुबेरात्मजौ बद्धमूर्त्यैव यद्वत्‌ त्वया मोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च। तथा प्रेमभक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह॥ हे भगवान! दामोदर, जिस प्रकार आपने दामोदर रूप से नलकूबर और मणिग्रीव नामक कुबेरपुत्रों को नारद जी के शाप से मुक्तकर उन्हें अपना महान भक्त बना लिया था, उसी प्रकार मुझे भी आप अपनी प्रेम भक्ति प्रदान कर दीजिए। यही मेरा एकमात्र आग्रह है मुझे किसी भी प्रकार के मोझ की कोई इच्छा नहीं है।  (8) नमस्तेऽस्तु दाम्ने स्फुरद्दीप्तिधाम्ने त्वदीयोदरायाथ विश्वस्य धाम्ने। नमो राधिकायै त्वदीय-प्रियायै नमोऽनन्त लीलाय देवाय तुभ्यम्॥ हे भगवान्‌ दामोदर, मैं सर्वप्रथम आपके उदर को बाँधने वाली दीप्तिमान रस्सी को प्रणाम करता हूँ। आपकी प्रियतमा श्रीमती राधारानी के चरणों में मेरा सादर प्रणाम है, और अनंत लीलायें करने वाले आप परमेश्वर को मेरा प्रणाम है।

श्रीगुरुचरण पद्म – Sri Guru Charana Padma

श्री गुरु वंदना (Guru Vandana) प्रेम-भक्ति-चंद्रिका से श्रील नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित एक प्रार्थना है। गुरु वंदना प्रतिदिन गुरु पूजा के दौरान गाई जाती हैं । श्रीगुरुचरण पद्म – गुरु वंदना (1) श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म, वन्दो मुइ सावधान मते।याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥ (2) गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा।श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति, ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥ (3) चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित।प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥ (4) श्रीगुरु करुणा-सिन्धु, अधम जनार बंधु, लोकनाथ लोकेर जीवन।हा हा प्रभु कोरो दया, देह मोरे पद छाया, एबे यश घुषुक त्रिभुवन॥ (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । श्रीगुरुचरण पद्म हिंदी में – अर्थ के साथ (1) श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म, वन्दो मुइ सावधान मते। याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥ आध्यात्मिक गुरु के चरणकमल ही एकमात्र साधन हैं जिनके द्वारा हम शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरणकमलों में अत्यन्त भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होता हूँ। उनकी कृपा से जीव भौतिक क्लेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है।  (2) गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा। श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति, ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥ मेरी एकमात्र इच्छा है कि उनके मुखकमल से निकले हुए शब्दों द्वारा अपनी चेतना को शुद्ध करूँ। उनके चरणकमलों में अनुराग ऐसी सिद्धि है जो समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है।  (3) चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥ वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिवय ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।  (4) श्रीगुरु करुणा-सिन्धु, अधम जनार बंधु, लोकनाथ लोकेर जीवन। हा हा प्रभु कोरो दया, देह मोरे पद छाया, एबे यश घुषुक त्रिभुवन॥  हे गुरुदेव, करूणासिन्धु तथा पतितात्माओं के मित्र! आप सबके गुरु एवं सभी लोगों के जीवन हैं। हे गुरुदेव! मुझ पर दया कीजिए तथा मुझे अपने चरणों की छाया प्रदान दीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है।

विभावरी शेष आलोक प्रवेश – Vibhavari Shesha

विभावरी शेष नामक यह भजन वृन्दावन में प्रतिदिन गुरु अष्टकम के बाद गाया जाता हैं। इस भजन की रचना ब्रम्हमध्व गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के महान आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने की हैं । इस भजन में भक्तिविनोद ठाकुर जी भगवान श्री कृष्ण के अनेक नामों का वर्णन बहुत ही मधुरता से करते हैं। विभावरी-शेष (1) विभावरी-शेष, आलोक-प्रवेश, निद्रा छाडि’ उठ जीव।बल हरि हरि, मुकुन्द मुरारी, राम-कृष्ण हयग्रीव ।। (2) नृसिंह वामन, श्रीमधुसूदन, ब्रजेन्दनंदन श्याम।पूतना-घातन, कैटभ-शातन, जय दाशरथि-राम।। (3) यशोदा-दुलाल, गोविन्द-गोपाल, वृन्दावन-पुरन्दर।गोपीप्रिय-जन, राधिका-रमण, भुवन-सुन्दरवर।। (4) रावणान्तकर, माखन-तस्कर, गोपीजन-वस्त्रहारी।व्रजेर राखाल, गोपवृन्दपाल, चित्तहारी वंशीधारी।। (5) योगीन्द्र-वंदन, श्रीनन्द-नन्दन, ब्रजजन भयहारी।नवीन नीरद, रूप मनोहर, मोहन-वंशीबिहारी।। (6) यशोदा-नन्दन, कंस-निसूदन, निकुंज रास विलासी।कदम्ब-कानन, रास परायण, वृन्दाविपिन-निवासी।। (7) आनन्द-वर्धन, प्रेम-निकेतन, फुलशर-योजक काम।गोपांगनागण, चित्त-विनोदन, समस्त-गुणगण-धाम ।। (8) यामुना-जीवन, केलि-परायण, मानस चन्द्र-चकोर।नाम-सुधारस, गाओ कृष्ण-यश, राख वचन मन मोर।। विभावरी शेष हिंदी में – अर्थ के साथ (1) विभावरी-शेष, आलोक-प्रवेश, निद्रा छाडि’ उठ जीव। बल हरि हरि, मुकुन्द मुरारी, राम-कृष्ण हयग्रीव ।।  रात्रि का अन्त  हो चुका है तथा सूर्योदय हो रहा है। सोती हुई जीवात्माओं जागो!तथा श्री हरि के नामो का जप करो । वे मुक्तिदाता हैं तथा मुर नामक असुर को मारनेवाले हैं।वे ही भगवान बलराम, भगवान कृष्ण तथा हयग्रीव हैं।। (2) नृसिंह वामन, श्रीमधुसूदन, ब्रजेन्दनंदन श्याम। पूतना-घातन, कैटभ-शातन, जय दाशरथि-राम।।  भगवान के नृसिंह अवतार की जय हो। वामनावतार की जय हो मधु  नामक  दैत्य को मरने वाले , ब्रजराज के पुत्र , श्याम  वर्णी ,वृन्दावन के परम भगवान,पूतना तथा कैटभ दैत्य का नाश करने वाले भगवान की जय हो। दशरथ पुत्र श्री रामचंद्र की जय हो।  (3) यशोदा-दुलाल, गोविन्द-गोपाल, वृन्दावन-पुरन्दर। गोपीप्रिय-जन, राधिका-रमण, भुवन-सुन्दरवर।।  माता यशोदा  के दुलारे वृन्दावन की गायों तथा गोपकुमारो के रक्षक एवम पालनकर्ता , गोपियों के परम प्रिय, राधारानी के संग विहार करने वाले ,तथा समग्र ब्रह्माण्ड में सर्वाधिक आकर्षक भगवान की जय।   (4) रावणान्तकर, माखन-तस्कर, गोपीजन-वस्त्रहारी। व्रजेर राखाल, गोपवृन्दपाल, चित्तहारी वंशीधारी।।  रावण के संहारक ,माखन चोर ,गोपियों के वस्त्र चुराने वाले , ब्रज की गायों के पालनहार, गोपकुमारों का निर्वाह करने वाले, चित्त, वंशी बजने वाले की जय हो।   (5) योगीन्द्र-वंदन, श्रीनन्द-नन्दन, ब्रजजन भयहारी। नवीन नीरद, रूप मनोहर, मोहन-वंशीबिहारी।। महान  योगियों द्वारा वन्दनीय , महाराज नंद के पुत्र ,समस्त व्रजवासियों के भय को हरने  वाले ,उनका सुन्दर रूप  वर्षा ऋतु के नवीन मेघ के समान अंगकति वाले मनोहर रूप के स्वामी वंशिवबिहारी की जय हो।     (6) यशोदा-नन्दन, कंस-निसूदन, निकुंज रास विलासी। कदम्ब-कानन, रास परायण, वृन्दाविपिन-निवासी।। वे यशोदा के पुत्र ,  कंस के संहारक , वृन्दावन के निकुंजो में दिव्य रस नृत्य का आनंद उठाने वाले हैं । (7) आनन्द-वर्धन, प्रेम-निकेतन, फुलशर-योजक काम। गोपांगनागण, चित्त-विनोदन, समस्त-गुणगण-धाम ।। वे सबके आनंद को बढाते हैं । वे भगवद प्रेमोन्माद के भंडार हैं। वे पुष्प रुपी बाण चलाने वाले कामदेव  ब्रजगोपिकायो के ह्रदयों को  आनंदित करने वाले वाले तथा समस्त दिव्य गुणों के आश्रय हैं।उनकी जय हो ।  (8) यामुना-जीवन, केलि-परायण, मानस चन्द्र-चकोर। नाम-सुधारस, गाओ कृष्ण-यश, राख वचन मन मोर।। वे यमुना मैया के जीवन  एवम प्राण  हैं । वे माधुर्य प्रेम में पारंगत हैं तथा चन्द्रमा रुपी मन में वे चकोर पक्षी के समान हैं। कृष्ण के यह पवित्र नाम अमृत्यमय हैं अतएव , कृपया कृष्ण का गुणगान करो तथा इस प्रकार , श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के वचनों का मान रखो।।

नमो नम: तुलसी कृष्ण प्रेयसी – Tulasi Aarti

तुलसी देवी, भगवान श्रीकृष्ण की सबसे श्रेष्ठ भक्तों में से एक  हैं  तथा कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं। यही कारण है कि कृष्ण भक्त उन्हें बहुत सम्मान देते हैं और प्रतिदिन तुलसी आरती गाते हैं। तुलसी देवी की पूजा करने का दूसरा कारण स्कंद पुराण में लिखी गई उनकी महिमा है। पुराणों में कहा गया है कि तुलसी इतनी शुभ है कि इसे देखने या छूने मात्र से ही हम ‘बीमारी’ और ‘संकट’ से दूर रहते हैं। यदि हम एक तुलसी का पेड़ लगाते हैं, उसे पानी देते हैं और उसके सामने प्रतिदिन झुकते हैं, तो तुलसी देवी हमें यमराज की छाया से भी दूर रखती है। श्री कृष्ण तुलसी के बहुत शौकीन हैं, जिन्हें महारानी भी कहा जाता है। वायु पुराण में कहा गया है: “परम भगवान हरि तुलसी के बिना किसी की पूजा स्वीकार नहीं करते हैं।” श्री तुलसी-आरती श्री तुलसी प्रणामवृन्दायै तुलसी देव्यायै प्रियायै केशवस्यच।कृष्ण भक्ती प्रदे देवी सत्य वत्यै नमो नमः।। (1) नमो नम: तुलसी कृष्ण प्रेयसी ।राधा कृष्ण सेवा पाबो एई अभिलाषी ।। (2) जे तोमार शरण लय, तार वांछा पूर्ण हय।कृपा करि कर तारे वृंदावनवासी।। (3) मोर एई अभिलाष, विलास कुन्जे दिओ वास।नयने हेरिबो सदा, युगल-रूप राशि।। (4) एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर।सेवा-अधिकार दिये, कर निज दासी।। (5) दीन कृष्णदासे कय, एइ येन मोर हय।श्री राधा गोविंदा प्रेमे सदा येन भासि।। श्री तुलसी प्रदक्षिणा मंत्र यानि कानि च पापानी ब्रह्म हत्यादिकानी च।तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणः पदे पदे ।। श्री तुलसी-आरती हिंदी में – अर्थ के साथ श्री तुलसी प्रणाम वृन्दायै तुलसी देव्यायै प्रियायै केशवस्यच। कृष्ण भक्ती प्रदे देवी सत्य वत्यै नमो नमः।। हे  वृंदा, हे तुलसी देवी, आप भगवान केशव की प्रिया हैं, हे  कृष्णभक्ति  प्रदान करने वाली सत्यवती देवी ,आपको मेरा  बारम्बार प्रणाम है।। (1) नमो नम: तुलसी कृष्ण प्रेयसी । राधा कृष्ण सेवा पाबो एई अभिलाषी ।। भगवान श्रीकृष्ण की प्रियतमा  हे तुलसी देवी मैं आपको प्रणाम करता हूं।  मेरी एकमात्र इच्छा है की मैं श्री श्री राधा कृष्ण की प्रेममयी सेवा प्राप्त कर सकूं। (2) जे तोमार शरण लय, तार वांछा पूर्ण हय। कृपा करि कर तारे वृंदावनवासी।। जो कोई आपकी शरण लेता है उसकी मनोकामना पूर्ण होती है। उस पर अपनी कृपा करती है  और  आप उसे वृंदावनवासी बना देती हैं। (3) मोर एई अभिलाष, विलास कुन्जे दिओ वास। नयने हेरिबो सदा, युगल-रूप राशि।। मेरी यही अभिलाषा हैं कि आप मुझे  भी वृन्दावन के कुंजो में निवास करने की अनुमति दे। ,जिससे मैं श्री  राधाकृष्ण की सुंदर लीलाओं का सदैव दर्शन कर सकूं। (4) एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर। सेवा-अधिकार दिये, कर निज दासी।। आपके चरणों में मेरा  यही निवेदन हैं की मुझे किसी ब्रजगोपी की अनुचरी बना दीजिए तथा सेवा का अधिकार देकर मुझे अपनी निज दासी बनने का अवसर दीजिए । (5) दीन कृष्णदासे कय, एइ येन मोर हय। श्री राधा गोविंदा प्रेमे सदा येन भासि।।  अति दीन कृष्णदास आपसे प्रार्थना करता है, मैं सदा सर्वदा श्रीश्री राधागोविंदा के प्रेम में डूबा रहूं। श्री तुलसी प्रदक्षिणा मंत्र यानि कानि च पापानी ब्रह्म हत्यादिकानी च। तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणः पदे पदे ।। श्रीमति तुलसी देवी की परिक्रमा से कदम-कदम पर किए गए सभी पाप, यहां तक ​​कि ब्राह्मण की हत्या का पाप भी नष्ट हो जाता है। तुलसी आरती करने की विधि तुलसी आरती प्रतिदिन सुबह मंगला आरती के बाद तथा शाम को  संध्या आरती के पहले की जाती हैं। तुलसी आरती शुरू करने से पहले हम तुलसी महारानी को तुलसी प्रणाम मंत्र बोलकर प्रमाण करते हैं तथा इसके बाद आरती शुरू करते हैं। आरती गा लेने के बाद तुलसी महारानी की श्री तुलसी प्रदक्षिणा मंत्र बोलकर तीन बार परिक्रमा करते हैं। इसके बाद तुसली महारानी को वापस से तुलसी प्रणाम मंत्र बोल कर पंचांग प्रणाम करते हैं तथा जल अर्पण करते हैं । सारांश हमारे श्रील प्रभुपाद के आध्यात्मिक गुरु, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने टिप्पणी की कि “श्रीमती तुलसी महारानी हमारी आध्यात्मिक गुरु हैं। वह श्री वृंदावन धाम की रानी हैं। उनकी कृपा से ही कोई श्री वृंदावन धाम में प्रवेश करने के योग्य हो सकता है। हम तुलसी महारानी को अपने गले में पहनते हैं, यह जानते हुए कि वह भगवान कृष्ण को बहुत प्रिय हैं। उनके प्रति हमारी निष्ठा से, हम भगवान हरि के नाम का जाप करते हैं।”

हरि हराये  नमः – Hari Haraye Namah Krishna

नाम संकीर्तन नामक भजन श्रीपाद नरोत्तम दास ठाकुर जी द्वारा रचित हैं। नरोत्तम दास ठाकुर  जी का यह भजन बहुत ही प्रसिद्ध  हैं तथा भक्तगण बड़े ही उल्लास और आनंद के साथ इसका गान करते हैं ।। इस्कॉन मे यह लोकप्रिय भजनों में से एक  हैं । हरि हराये नमः (1) हरि हराये नमः कृष्ण यादवाय नमःयादवाय माधवाय केशवाय नमः।। (2) गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन।गिरिधारी गोपीनाथ मदनमोहन।। (3) श्री चैतन्य-नित्यानंद श्री अद्वैत-सीता।हरि गुरु वैष्णव भागवत गीता।। (4) श्री-रूप सनातन भट्ट रघुनाथ ।श्री जीव गोपाल-भट्ट दास रघुनाथ।। (5) एइ छाय् गोसाईर् कोरि चरण वंदन्।जहां होइतॆ विघ्न-नाश अभीष्ट-पुरण ।। (6) एइ छह गोसाईर जार मुइ तार दास।ता सबार पद-रेणु मोर पंच-ग्रास।। (7) तादेर चरण-सेवी-भक्त-सनॆ वास।जनमॆ जनमॆ होय् एइ अभिलाष ।। (8) एइ छइ गोसाइ जबॆ ब्रजॆ कॊइला बास्।राधा-कृष्ण-नित्य-लीला कॊरिला प्रकाश ।। (9) आनंदे बोलो हरि भज वृन्दावन।श्री-गुरु-वैष्णव-पदे मजाइया मन ।। (10) श्री-गुरु-वैष्णव-पाद-पद्म कोरि आश।नाम-संकीर्तन कहॆ नरोत्तम दास।। हरि हराये  नमः हिंदी में – अर्थ के साथ हरि हराये नमः कृष्ण यादवाय नमः यादवाय माधवाय केशवाय नमः।। हे  भगवान हरि , हे श्री कृष्ण, मैं आपको नमन करता हूं। आप यादव , हरि , माधव तथा केशव नामो से जानें जाते हैं। गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन। गिरिधारी गोपीनाथ मदनमोहन।। ही गोपाल ,गोविंद,राम, श्री मधुसूदन, गिरिधारी,गोपीनाथ ,मदनमोहन। श्री चैतन्य-नित्यानंद श्री अद्वैत-सीता। हरि गुरु वैष्णव भागवत गीता।। श्री चैतन्य और नित्यानंद की जय हो। श्री अद्वैत आचार्य तथा उनकी भार्या श्रीमती सीता ठाकुरानी की जय हो। भगवान श्री हरि ,गुरु, वैष्णव जन, श्रीमद्भागवत तथा श्रीमद्भगवद्गीता की जय हो। श्री-रूप सनातन भट्ट रघुनाथ । श्री जीव गोपाल-भट्ट दास रघुनाथ।। श्री रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी ,गोपाल भट्ट गोस्वामी और रघुनाथ दास गोस्वामी की जय हो। एइ छाय् गोसाईर् कोरि चरण वंदन्। जहां होइतॆ विघ्न-नाश अभीष्ट-पुरण ।। मैं इन छह गोस्वामियों के चरणों का वंदन करता हूं।उनका वंदन करने से भक्ति  के विघ्नो का नाश होता हैं तथा अभीष्ट इच्छा पूर्ण होती हैं। एइ छह गोसाईर जार मुइ तार दास। ता सबार पद-रेणु मोर पंच-ग्रास।।  मैं इन छह गोस्वामियों के सेवक का सेवक हूं। उन सबके चरणों की धूल मेरा पंच ग्रास हैं। तादेर चरण-सेवी-भक्त-सनॆ वास। जनमॆ जनमॆ होय् एइ अभिलाष ।। मेरी यही अभिलाषा हैं कि मैं इन छह गोस्वामियों के चरणों की सेवा करने वाले भक्तो के संग जन्म जन्मांतर वास करू। एइ छइ गोसाइ जबॆ ब्रजॆ कॊइला बास्। राधा-कृष्ण-नित्य-लीला कॊरिला प्रकाश ।।  इन छह गोस्वामियों ने जब ब्रज में वास किया था,तो इन्होने राधा कृष्ण की नित्य लीला का प्रकाश किया था। आनंदे बोलो हरि भज वृन्दावन। श्री-गुरु-वैष्णव-पदे मजाइया मन ।। अपने मन को श्री गुरु और वैष्णव के दिव्य चरणों के ध्यान में लगाकर आनंदपूर्वक हरि के नामो का उच्चारण करो,तथा वृन्दावन का भजन करो । श्री-गुरु-वैष्णव-पाद-पद्म कोरि आश। नाम-संकीर्तन कहॆ नरोत्तम दास।।  श्री गुरु और वैष्णवो के चरणों की आशा करता हुआ , नरोत्तम दास हरिनाम संकीर्तन करता हैं। 

जय राधा माधव कुंजबिहारी – Jaya Radha Madhav

( श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी द्वारा रचित) भक्तिविनोद ठाकुर ब्रह्म मध्व गौड़ीय संप्रदाय के महान आचार्य तथा एक महान कृष्ण भक्त थे । उन्होंने भगवान कृष्ण और उनके भक्तों की प्रसन्नता के लिए अनेक वैष्णव भजन लिखे। जय राधा माधव भजन बहुत की प्रसिद्ध भजन है तथा वैष्णवों का प्रिय भजन है भक्त बड़े प्रेम पूर्वक इस भजन का गान करते हैं । इस भजन को सामन्यतया भक्तगणों द्वारा दो प्रकार से गाया जाता है। हम आपके समक्ष दोनों ही प्रकार प्रस्तुत कर रहे हैं , आपको जैसे ठीक लगे आप वैसे गा सकते हैं।  (जय राधा माधव – 1) (जय ) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी। (जय )गोपी जन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी।। (जय ) यशोदा नन्दन (जय) ब्रजरंजन। (जय ) यमुनातीर वनचारी।। (जय राधा माधव – 2) जय राधा माधव कुंजबिहारी। जय गोपी जन वल्लभ गिरिवरधारी।। यशोदा नन्दन ब्रजरंजन। यमुनातीर वनचारी।। अर्थ (Meaning): वृन्दावन की कुंजो में क्रीड़ा करने वाले राधामधाव की जय। कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं।कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त ब्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं। (हरे कृष्ण महामंत्र ) हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।।

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