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भज गौरांगा – Bhaj Gauranga Kaho Gauranga

भज गौरांगा, कहो गौरंगा भज गौरांगा, कहो गौरंगा,लहा गौरांगेरा नाम रे।जेई जना गौरंगा भाजे ,सेई होय अमारा प्राण रे। (1) गौरांगा बुलियाँ दूबाहू तुलिया,नचियाँ नचियाँ बेराओ रे। (2) गौराङ्ग भजिले, गौराङ्ग जपिले,होय दुखेर अबसान रे॥

श्री ब्रह्म संहिता- Śrī Brahma-saṁhitā Hindi

श्री ब्रह्म संहिता (1) ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्॥ (2) चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्षलक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (3) वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षंबर्हावतं समसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्।कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (4) आलोलचन्द्रकलसद्ववनमाल्यवंशीरत्नागदं प्रणयकेलिकलाविलासम्।श्यामं त्रिभंगललितं नियतप्रकाशंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (5) अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्तिपश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति।आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (6) अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्‌आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (7) पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्योवायोरथापि मनसो मुनिङ्गवानाम्।सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (8) एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं-यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः।अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (9) यभ्दावभावितधियो मनुजास्तथैवसम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः।सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः स्तुवन्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (10) आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्‌ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (11) प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेनसन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (12) रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्‌नानावतारमकरोद्‌ भुवनेषु किन्तु।कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान्‌ योगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (13) यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-कोटिष्वशेषवसुधादि विभूतिभिन्नम्।तद्‌ ब्रह्म निष्कलमनंतमशेषभूतंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (14) माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूतेत्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना।सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वं विशुद्धसत्त्वंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (15) आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनःसुयः प्राणिनां प्रतिफलन्‌ स्मरतामुपेत्य।लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्रंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (16) गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्यदेवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येनगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (17) सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेकाछायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दूर्गा।इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (18) क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्‌सञ्जायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः।यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्‌गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (19) दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्यदीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा।यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभातिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (20) यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः।आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (21) यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः।विष्णुर्महान्‌ स इह यस्य कलाविशेषोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (22) भास्वान्‌ यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजःस्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र।ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्तागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (23) यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भद्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः।विघ्नान्‌ विहन्तुमलमस्य जगत्रयस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (24) अग्निर्मही गगनमम्बु मरुद्दिश श्चकालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि।यस्माद्‌ भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं चगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (25) यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणांराजा समस्तसुरमुर्तिरशेषतेजाः।यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (26) धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसिब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः।यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (27) यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-बन्धानुरूपफलभाजनमातनोती।कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजांगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (28) यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीतिवात्सल्यमोहगुरुगौरवसेवयभावैः।स िञ्चन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेतेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (29) श्रियः कान्ताः कान्तः परमापुरुषः कल्पतरवोद्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।कथा गानं नाटयं गमनमपि वंशी प्रियसखीचिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च॥ स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीभ्यश्च सुमहान्‌निमेषार्धाख्यो वाव्रजति न हि यत्रापि समयः।भजे श्वेतद्वीपं तमहमिह गोलोकमिति यंविदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये॥

Mam Man Mandire

मम मन मंदिरे – Mam Man Mandire Krishna Murari

‘मम मन मंदिरे रहो निशिदिन कृष्ण मुरारि’ नामक यह भजन वैष्णवो को अत्यंत प्रिय हैं, तथा इस भजन की रचना ब्रह्ममध्व गौडिया संप्रदाय के महान आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने की हैं। मम मन मंदिरे (1) मम मन मंदिरे रहो निशिदिन।कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ (2) भक्ति प्रिती मालाचन्दन।तुमि निओ हे निओ चितोनन्दन॥ (3) जीवन मरण तोर पूजा निवेदन।सुदर हे मन हारि॥ (4) ऐसो नन्दकुमार आर नन्दकुमार।ह’बे प्रेम प्रदिपे आरतिक तोमार॥ (5) नयने यमुना जरे अनिबार।तोमार विरहे गिरिधारी॥ (6) वंदन गनेत ताबे बजुक जीवन।कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ मम मन मंदिरे रहो निशिदिन कृष्ण मुरारि हिंदी में -अर्थ के साथ (1) मम मन मंदिरे रहो निशिदिन। कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ कृपया, दिन और रात दोनों समय, मेरे मन के मन्दिर में वास कीजिए। (2) भक्ति प्रिती मालाचन्दन। तुमि निओ हे निओ चितोनन्दन॥ भक्ति, प्रेम, पुष्प मालाएँ और चंदन कृपया स्वीकार कीजिए। हे हरि! मन को प्रसन्नचित करने वाले। (3) जीवन मरण तोर पूजा निवेदन। सुदर हे मन हारि॥ मैं जन्म या मृत्यु में, इन वस्तुओं को अर्पित करके आपकी आराधना करता हूँ, हे सुन्दर, हे मन को आकर्षित करने वाले मनोहारी! (4) ऐसो नन्दकुमार आर नन्दकुमार। ह’बे प्रेम प्रदिपे आरतिक तोमार॥ आओ! हे नन्द-नन्दन, मैं अपने प्रेम रूपी दीये से आपकी आरती उतारूँगा। (5) नयने यमुना जरे अनिबार। तोमार विरहे गिरिधारी॥ हे गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले गिरधारी! आपके विरह में यमुना नदी का जल निरन्तर मेरे नेत्रों से जलप्रपात के समान गिरता है। (6) वंदन गनेत ताबे बजुक जीवन। कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ हे कृष्ण मुरारि, श्रीकृष्ण मुरारि! मेरा जीवन केवल आपका यश गान करने में तल्लीन होकर वयतीत हो जाए

श्री जगन्नाथाष्टकम – Shree Jagannath Ashthakam

 श्री जगन्नाथाष्टकम श्री जगन्नाथ जी को अत्यंत प्रिय हैं तथा भक्तों के द्वारा बड़े प्रेम से गाया जाता हैं। इसकी रचना श्री आदि शंकरा आचार्य जी ने की हैं। श्री जगन्नाथाष्टकम (1) कदाचित कालिन्दितट-विपिन-सङ्गीतक रवो मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः। रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। (2) भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे दुकूलं नेत्रान्ते सहचरि-कटाक्षं विदधते। सदा श्रीमद्‌वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (3) महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे वसन्‌प्रासादान्त सहज-बलभद्रेण बलिना। सुभद्रा-मध्यस्थः सकल-सुर-सेवावसरदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (4) कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः। सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (5) रथारूढो गच्छन्‌ पथि मिलित-भूदेव पटलैःस्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः।दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतयाजगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (6) परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि। रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (7) न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम्। सदाकाले काले प्रमथपतिना गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। (8) हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते!। अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (9) जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत्‌ प्रयतः शुचि। सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥ श्री जगन्नाथाष्टकम हिंदी में -अर्थ के साथ (1) कदाचित कालिन्दितट-विपिन-सङ्गीतक रवो  मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः।  रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। भगवान्‌ जगन्नाथ कभी-कभी, कालिंदी नदी के तटों पर समस्त कुंजो में, संगीत वादन करते हुए (बजाते हुए) और गाते हुए, संगीतात्मक मधुर ध्वनि उत्पन्न करते है। वे,  व्रज बालाओं के कमल सदृश मुखों के अमृत रस का आस्वादन करते हुए, महान हर्षोल्लास का अनुभव करते हुए, एक भौंरे के समान हैं। उनके चरण कमल, लक्ष्मीजी, शिवजी, ब्रह्माजी, इन्द्र एवं गणेश जी जैसे महान वयक्तियों द्वारा पूजे जाते हैं। कृपया, ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ।  (2) भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे  दुकूलं नेत्रान्ते सहचरि-कटाक्षं विदधते।  सदा श्रीमद्‌वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ अपने बायें हाथ में वे एक बाँसुरी धारण किए रहते हैं, अपने शीश पर एक मोरपंख, और अपने कूल्हों के चारों ओर एक उत्तम सिल्क का वस्त्र। अपने नेत्रों के कोनों से, वे अपने प्रिय साथियों पर तिरछी नजरों से दृष्टिपात करते हैं। वे श्री वृन्दावन में रहते हुए जो लीलाएँ करते हैं, उन्हें वे अत्याधिक प्रिय हैं। कृपया, ब्रहाण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ।  (3) महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे वसन्‌ प्रासादान्त सहज-बलभद्रेण बलिना।  सुभद्रा-मध्यस्थः सकल-सुर-सेवावसरदो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ महान समुद्र के तट पर एक विशाल महल है, जो स्वर्ण की कांति से चमकता है, और जिसके शिखर पर एक ऊँची मंदिर की मीनार है जो एक चमकदार नीले नीलमणि या नीलम जैसे पर्वत के समान प्रतीत होती है। उनके अन्दर वास करते हुए भगवान्‌ जगन्नाथ, अपने महान भाई बलभद्र, और उन दोनों के मध्य उनकी बहन सुभद्रा के साथ, विभिन्न भक्ति कार्य सम्पन्न करने का, समस्त दैवी आत्माओं को, सेवाओं अवसर प्रदान करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हो। (4) कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो  रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः।  सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ वे अहैतुकी कृपा के अथाह सागर हैं, और उनका सुन्दर वर्ण काले गहरे वर्षा के बादलों के झुंड के समान हैं। वे अपनी प्रेयसी देवी लक्ष्मी द्वारा दिए गए कठोर दंड या कटु आलोचना के स्नेहपूर्ण शब्द सुनकर अत्याधिक सुख-आनन्द प्राप्त करते हैं। उनका मुख एक बेदाग (दोष रहित) पूर्ण खिले हुए कमल पुष्प के समान है। वे श्रेष्ठ देवी देवताओं एवं साधू-संतों द्वारा पूजे जाते हैं, और उनका चरित्र व उनके कार्यकलाप सर्वोच्च मूर्तिमान उपनिषदों द्वारा गीत रूप में गाकर महिमान्वित किए जाते हैं। कृपया ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हों। (5) रथारूढो गच्छन्‌ पथि मिलित-भूदेव पटलैः स्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः। दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतया जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ जैसे ही भगवान्‌ अपनी रथ यात्रा के रथ पर चढ़ते हैं और सड़क पर जुलूस के रूप में आगे बढ़ते हैं, वहाँ संत, ब्रह्मणों की विशाल सभाओं द्वारा गाए गये गीतों और जोर से की गई प्रार्थनाओं का निरंतर उच्चारण चलता रहता है। उनके स्तुति-मंत्र सुनकर, भगवान्‌ जगन्नाथ अनुकूल रूप से उनकी ओर झुक जाऐंगें। वे दया के सागर हैं, और समस्त लोकों के सच्चे मित्र हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, अपनी संगिनी लक्ष्मीजी सहित, जिनका जन्म अमृत के सागर से हुआ था, कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों।  (6) परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो  निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि।  रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥  वे परब्रह्म (परम आध्यात्मिक वास्तविकता या सत्य) के शीश पर अलकृंत आभूषण हैं। उनके नेत्र नीले कमल पुष्प की कर्णिकाओं के समान हैं, और वे नीलाचल मन्दिर में वास करते हैं जो एक नीलमणि पर्वत के सदृश प्रतीत होता है। उनके चरण कमल भगवान्‌ अनंतदेव के शीश पर रखे हुए हैं। वे दिवय प्रेममयी अमृत रसों की धारा से भाव विह्वल हैं, और वे केवल श्रीमती राधारानी के समधुर चित्तकर्षक दिवय रूप के आलिंगन द्वारा ही प्रसन्न होते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे भी दृष्टिगोचर हों।  (7) न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं  न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम्।  सदाकाले काले प्रमथपतिना गीतचरितो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। मैं, निश्चय ही एक राज्य प्राप्त करने के लिए प्रार्थना नहीं करता हूँ, न ही स्वर्ण, रत्न माणिक्य और धन-सम्पत्ति के लिए। मैं एक सुशील एवं सुन्दर पत्नी नहीं माँगता हूँ। जिसको पाने की सभी साधारण मनुष्य अभिलाषा करते हैं। मैं तो केवल ब्रह्माण्ड के उस स्वामी के लिए प्रार्थना करता हूँ, जिसकी महिमा भगवान्‌ शिव द्वारा युगों-युगों से गाई जा रही है, वे कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों।  (8) हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते  हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते!।  अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ हे देवी-देवताओं के स्वामी! कृपया शीघ्र ही इस वयर्थ, निरर्थक भौतिक अस्तित्व को दूर ले जाइये जिसमें मैं फँसा हुआ जी रहा हूँ। हे यदुओं के स्वामी! कृपया मेरे पापपूर्ण कार्यो के फलों के असीमित संग्रह को नष्ट कर दीजिए। अहो! यह निश्चित है कि भगवान्‌ जगन्नाथ अपने चरण कमल का आशीर्वाद उन लोगों को प्रदान करते हैं जो स्वयं को विनम्र व असहाय अनुभव करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों।  (9) जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत्‌ प्रयतः शुचि।  सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥ उस आत्मनियंत्रित एवम गुणवान्‌ व सद्‌गुणी व्यक्ति जो भगवान्‌ जगन्नाथ जी को महिमान्वित करने वाले इन आठ श्लोकों का गान करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है (उसके समस्त पाप धुल जाते हैं), और वह उचित रीति द्वारा स्वतः ही भगवान्‌ विष्णु के धाम को प्राप्त करता है।

महाप्रसादे गोविन्दे – Mahaprasade Govinde

यह प्रसाद मंत्र प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व गाया जाता हैं प्रसादम का अर्थ है “कृपा” भागवान को भोग लगाया हुआ प्रसाद भगवान की कृपा हैं । भगवान कृष्ण का प्रसाद भगवान श्री कृष्ण का अवतार माना जाता हैं । प्रसाद मंत्र (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे।स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे।तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई।सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। प्रसाद मंत्र हिंदी में -अर्थ के साथ (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे। तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्‌टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ भगवान्‌ कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो। (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु – Shree Krishna Chaitanya Prabhu

श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु (1) श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे ।तोमा बिना के दयालु जगत् संसारे ॥ (2) पतित पावन हेतु तव अवतार ।मो सम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥ (3) हा हा प्रभु नित्यानंद ! प्रेमानंद सुखी ।कृपावलोकन करो आमि बड़ दुखी ॥ (4) दया करो सीतापति अद्वैत गोसाइ ।तव कृपाबले पाए चैतन्य निताई ॥ (5) हा हा स्वरूप, सनातन ,रूप ,रघुनाथ ।भट्ट युग,श्रीजीव ,हा प्रभु लोकनाथ ॥ (6) दया करो श्री आचार्य प्रभु श्रीनिवास ।रामचंद्र संग मांगे नरोत्तम दास ॥ (1) श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे । तोमा बिना के दयालु जगत् संसारे ॥ हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है? (2) पतित पावन हेतु तव अवतार । मो सम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥ हे प्रभु! पतितों को पावन करने हेतु ही आपका अवतार हुआ है, अतः मेरे समान पतित आपको और कहीं नहीं मिलेगा। (3) हा हा प्रभु नित्यानंद ! प्रेमानंद सुखी । कृपावलोकन करो आमि बड़ दुखी ॥ हे नित्यानंद प्रभु! आप तो सदैव गौरांगदेव के प्रेमानन्द में मत्त रहते हैं। कृपापूर्वक मेरे प्रति आप दृष्टिपात कीजिए, क्योंकि मैं बहुत दुःखी हूँ। (4) दया करो सीतापति अद्वैत गोसाइ । तव कृपाबले पाए चैतन्य निताई ॥ हे अद्वैतआचार्य! आप मुझपर कृपा कीजिए क्योंकि आपके कृपाबल से ही चैतन्य-निताई के चरणों की प्राप्ति संभव हो सकती है। (5) हा हा स्वरूप, सनातन ,रूप ,रघुनाथ । भट्ट युग,श्रीजीव ,हा प्रभु लोकनाथ ॥ हे श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी! हे श्रील सनातन गोस्वामी! हे श्रील रूप गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथदास गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथ भट्‌ट गोस्वामी! हे श्रील गोपाल भट्‌ट गोस्वामी! हे श्रील जीव गोस्वामी! तथा श्रील लोकनाथ गोस्वामी! आप सब मुझपर कृपा कीजिए, ताकि मुझे श्री चैतन्य-चरणों की प्राप्ति हो। (6) दया करो श्री आचार्य प्रभु श्रीनिवास । रामचंद्र संग मांगे नरोत्तम दास ॥ श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना कर रहे हैं, ‘‘हे श्रीनिवास आचार्य! आप मुझपर कृपा करें, ताकि मैं श्रीरामचन्द्र कविराज का संग प्राप्त कर सकूँ। ’’

जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले – Jeev Jago

जीव जागो नामक यह वैष्णव भजन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा रचित हैं। इस भजन के माध्यम से श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी कृष्ण को भूले जीव को फिर से कृष्ण प्रेम याद दिला रहे हैं तथा हरि नाम की महिमा का गान कर रहे हैं। जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले (1) जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥ (2) भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे।भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥ (3) तोमार लइते आमि हइनु अवतार।आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥ (4) एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि।हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥ (5) भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया।सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥ जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले हिंदी में – अर्थ के साथ (1) जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले। कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥ श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे? (2) भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे। भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥ तूम इस जगत में यह कहते हुए आए थे, ‘हे मेरे भगवान्‌, मैं आपकी आराधना व भजन अवश्य करूँगा,’ लेकिन जगत में आकर अविद्या (माया)में फँसकर तूम वह प्रतिज्ञा को भूल गए हो। (3) तोमार लइते आमि हइनु अवतार। आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥ अतः तुम्हे लेने के लिए मैं स्वयं ही इस जगत में अवतरित हुआ हूँ। अब तूम स्वयं विचार करो कि मेरे अतिरिक्त तुम्हारा बन्धु (सच्चा मित्र) अन्य कौन है? (4) एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि। हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥ मैं माया रूपी रोग का विनाश करने वाली औषधि “हरिनाम महामंत्र” लेकर आया हूँ। अतः तुम कृपया मुझसे महामंत्र मांग ले। (5) भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया। सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥ श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी श्रीमन्महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर हरे कृष्ण महामंत्र बहुत विनम्रता पूर्वक मांग लिया है।

जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन – Jaya Radhe Jaya Krishna

“जय राधे ,जय कृष्ण, जय वृन्दावन”  नामक यह वैष्णव  भजन कृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा रचित हैं । तथा वैष्णव भक्तों के बीच यह भजन अत्यंत लोकप्रिय हैं। जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन (1) जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन ।श्री गोविंदा, गोपीनाथ, मदन-मोहन ॥ (2) श्याम-कुंड, राधा-कुंड, गिरि-गोवर्धन ।कालिंदी जमुना जय, जय महावन ॥ (3) केशी-घाट, बंसीवट, द्वादश-कानन ।जहां सब लीला कोइलो श्री-नंद-नंदनी ।। (4) श्री-नंद-यशोदा जय, जय गोप-गण ।श्रीदामादि जय, जय धेनु-वत्स-गण ॥ (5) जय वृषभानु, जय कीर्तिदा सुंदरी ।जय पूरणमासी, जय अभिरा नगरी ॥ (6) जय जय गोपिश्वर वृंदावन-माझ ।जय जय कृष्ण-सखा बटु द्विज-राज ॥ (7) जय राम-घाट, जया रोहिणी-नंदन ।जय जय वृंदावन, बासी-जत-जन ॥ (8) जय द्विज-पत्नी जय, नाग-कन्या-गण ।भक्ति जहर पाईलो, गोविंद चरण ॥ (9) श्री-रास-मंगल जय, जय राधा-श्याम ।जय जय रास-लीला, सर्व-मनोरम ॥ (10) जय जय उज्ज्वल-रस, सर्व-रस-सार ।पारकिया-भावे जाह, ब्रजते प्रचार ॥ (11) श्री जाह्नवा पाद पद्म कोरिया स्मरण ।दीन कृष्ण दास कोहे नाम संकीर्तन॥ जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन हिंदी में – अर्थ के साथ (1) जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन । श्री गोविंदा, गोपीनाथ, मदन-मोहन ॥ राधा-कृष्ण तथा वृंदावन धाम की जय हो। श्री गोविंद, गोपीनाथ तथा मदनमोहन- वृंदावन के इन तीन अधिष्ठाता विग्रहों की जय हो। (2) श्याम-कुंड, राधा-कुंड, गिरि-गोवर्धन । कालिंदी जमुना जय, जय महावन ॥ श्यामकुण्ड, राधाकुण्ड, गिरिगोवर्धन तथा यमुना की जय हो। कृष्ण और बलराम के बाल्य क्रीडास्थल महावन की जय हो। (3) केशी-घाट, बंसीवट, द्वादश-कानन । जहां सब लीला कोइलो श्री-नंद-नंदनी ।। जहाँ कृष्ण ने केशी राक्षस का वध किया था, उस केशी-घाट की जय हो। जहाँ कृष्ण ने अपनी मुरली से सब गोपिकाओं को आकर्षित किया था, उस वंशी-वट की जय हो। व्रज के द्वाद्वश वनों की जय हो, जहाँ नन्दनंदन श्रीकृष्ण ने सब लीलायें कीं। (4) श्री-नंद-यशोदा जय, जय गोप-गण । श्रीदामादि जय, जय धेनु-वत्स-गण ॥ कृष्ण के दिवय माता-पिता, नंद और यशोदा की जय हो। राधारानी और अनंग मंजरी के बड़े भााई श्रीदामा सहित सब गोपबालकों की जय हो। व्रज के सब गाय-बछड़ों की जय हो। (5) जय वृषभानु, जय कीर्तिदा सुंदरी । जय पूरणमासी, जय अभिरा नगरी ॥ राधाजी के दिवय माता-पिता, वृषभानु और कीर्तिदा की जय हो। संदीपनि मुनि की मां, मधुमंगल व नंदीमुखी की दादी एवं देवर्षि नारद की प्रिय शिष्या- पौर्णमासी की जय हो। व्रज की युवा गोपिकाओं की जय हो। (6) जय जय गोपिश्वर वृंदावन-माझ । जय जय कृष्ण-सखा बटु द्विज-राज ॥ पवित्र धाम के संरक्षणार्थ निवास करने वाले गोपीश्वर शिव की जय हो। कृष्ण के ब्राह्मण-सखा मधुमंगल की जय हो। (7) जय राम-घाट, जया रोहिणी-नंदन । जय जय वृंदावन, बासी-जत-जन ॥ जहाँ बलराम जी ने रास रचाया था, उस राम-घाट की जय हो। रोहिणीनंदन बलराम जी की जय हो। सब वृंदावनवासियों की जय हो। (8) जय द्विज-पत्नी जय, नाग-कन्या-गण । भक्ति जहर पाईलो, गोविंद चरण ॥ गर्वीले यज्ञिक ब्राह्मणों की पत्नियों की जय हो। कालिय नाग की पत्नियों की जय हो, जिन्होंने भक्ति के द्वारा गोविन्द के श्रीचरणों को प्राप्त किया। (9) श्री-रास-मंगल जय, जय राधा-श्याम । जय जय रास-लीला, सर्व-मनोरम ॥ श्री रासमण्डल की जय हो। राधा और श्याम की जय हो। कृष्ण की लीलाओं में सबसे मनोरम, रासलीला की जय हो। (10) जय जय उज्ज्वल-रस, सर्व-रस-सार । पारकिया-भावे जाह, ब्रजते प्रचार ॥ समस्त रसों के सारस्वरूप माधुर्यरस की जय हो, भगवान्‌ कृष्ण ने परकीय-भाव में जिसका प्रचार ब्रज में किया। (11) श्री जाह्नवा पाद पद्म कोरिया स्मरण । दीन कृष्ण दास कोहे नाम संकीर्तन॥ नित्यानंद प्रभु की संगिनी श्री जाह्नवा देवी के चरणकमलों का स्मरण कर यह दीन-हीन कृष्णदास नाम संकीर्तन कर रहा है।

श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् – Chaitanya Mahaprabhu Shiksha-Ashtakam

भगवान चैतन्य महाप्रभु ने केवल आठ श्लोक ही अपनी सम्पूर्ण शिक्षा के रुप में प्रदान किये जिन्हे “शिक्षाष्टक” कहते हैं । श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं  भगवान श्री कृष्ण  हैं जो आज से पांच सौ साल पहले एक भक्त के रूप के प्रकट हुए और भगवान के नाम का प्रचार किया। श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणंश्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनंसर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापिदुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये।मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा।पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-मदर्शनार्न्महतां करोतु वा।यथा तथा वा विदधातु लम्पटोमत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ शिक्षाष्टकम् हिंदी में – अर्थ के साथ (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए। (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्‌गद्‌ वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा- मदर्शनार्न्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।

गौरांङ्ग बलिते हबे पुलक-शरीर – Gauranga Bolite

यह वैष्णव भजन श्रील नरोत्तम दास ठाकुर जी द्वारा रचित हैं । इस भजन में नरोत्तम दास ठाकुर जी  नित्यानंद  प्रभु से भगवान श्री कृष्ण की अहैतु की भक्ति की प्रार्थना करते हैं। गौरांङ्ग बलिते (1) ‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥ (2) आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे।संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे॥ (3) विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे मन।कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन॥ (4) रूप-रघुनाथ-पदे हइबे आकुति।कबे हाम बुझब से युगल पिरीति॥ (5) रूप-रघुनाथ-पदे रहु मोर आश।प्रार्थना करये सदा नरोत्तमदास॥ गौरांङ्ग बलिते हिंदी में – अर्थ के साथ (1) ‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर। ‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥ वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे? (2) आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे। संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे॥ कब श्रीनित्यानंद प्रभु मुझ पर अपनी कृपावर्षा करेंगे, कि जिससे मेरी समस्त भौतिक भोग की इच्छायें तुच्छ हो जायेंगी। (3) विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे मन। कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन॥ कब मेरा मन भौतिक सुख के विषयों को त्यागकर निर्मल होगा? कब मैं श्रीवृन्दावन धाम का वास्तविक दर्शन कर पाऊँगा। (4) रूप-रघुनाथ-पदे हइबे आकुति। कबे हाम बुझब से युगल पिरीति॥ श्रीरूप-रघुनाथ गोस्वामी (षड्‌गोस्वामीवृन्द) के चरण-दर्शन के लिए कब मैं व्याकुल हो उठूँगा। कब मैं श्रीश्री राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम-व्यापार को समझने में समर्थ हो सकूँगा। (5) रूप-रघुनाथ-पदे रहु मोर आश। प्रार्थना करये सदा नरोत्तमदास॥ श्रील नरोत्तमदास ठाकुर सदा यही प्रार्थना करते हैं ‘‘श्रील रूपगोस्वामी-श्रील रघुनाथदास गोस्वामी के चरणों में मेरी सदा आशा बनी रहे। ’’

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