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नमस्ते नरसिंहाय: Narsimha Aarti Lyrics

नृसिंह आरती की अंतिम तीन पंक्तियाँ  गीत गोविंद के श्री दशावतार स्तोत्र से उद्धृत की गईं हैं। इसकी रचना भगवान के महान भक्त श्रील जयदेव गोस्वामी द्वारा की गई है ।

नरसिंह : नर + सिंह (“मानव-सिंह”)  पुराणों में भगवान नरसिंह को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। जो आधे मानव एवं आधे सिंह के रूप में प्रकट होते हैं, जिनका  धड तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे । तथा भगवान नरसिंह अपने भक्त प्रह्लाद के लिए प्रकट हुए । भगवान नरसिंह विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं।

भगवान नरसिंहदेव भगवान विष्णु के अवतार हैं।  वे आधे पुरुष और आधे सिंह रूप में पूजे जाते हैं।  दैत्य  हिरण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान  ने कई सदियों पहले यह अवतार लिया था।  अपने ही भक्त पुत्र प्रह्लाद की हत्या करने की कोशिश कर रहा था।क्योंकि प्रह्लाद भगवान विष्णु को सर्वोच्च मानते थे।  भगवान नरसिंह दैत्य हिरणकश्यप को नष्ट करने और अपने निर्दोष भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए प्रकट हुए।  उन्हें मुख्य रूप से ‘महान रक्षक’ के रूप में जाना जाता है जो विशेष रूप से आवश्यकता के समय अपने भक्तों की रक्षा करते हैं।

इस आरती के माध्यम से हम उन्ही भगवान नरसिंह को नमन करते हैं और उनसे हमारी रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं जिस प्रकार उन्होंने प्रह्लाद महाराज की करी थी।

नरसिंह देव की जय!

नृसिंह आरती

(1)

नमस्ते नरसिंहाय प्रह्लादाह्लाद-दायिने।
हिरण्यकशिपोर्वक्षः-शिला-टङ्क-नखालये।।

(2)

इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो यतो यतो यामि ततो नृसिंहः।
बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥

(3)

तव कर-कमल-वरे नखम्‌ अद्‌भुत-श्रृंङ्गम्‌
दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम्‌
केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥

जय जगदीश हरे, जय जगदीश हरे, जय जगदीश हरे

नृसिंह आरती हिंदी में – अर्थ के साथ

(1)

नमस्ते नरसिंहाय
प्रह्लादाह्लाद-दायिने।
हिरण्यकशिपोर्वक्षः-
शिला-टङ्क-नखालये।।

मैं नृसिंह भगवान्‌ को प्रणाम करता हूँ जो प्रह्लाद महाराज को आनन्द प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके नख दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पाषाण सदृश वक्षस्थल के ऊपर छेनी के समान हैं।

(2)

इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो
यतो यतो यामि ततो नृसिंहः।
बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो
नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥

नृसिंह भगवान्‌ यहाँ है और वहाँ भी हैं। मैं जहाँ कहीं भी जाता हॅूँ वहाँ नृसिंह भगवान्‌ हैं। वे हृदय में हैं और बाहर भी हैं। मैं नृसिंह भगवान्‌ की शरण लेता हूँ जो समस्त पदार्थों के स्रोत तथा परम आश्रय हैं।

(3)

तव कर-कमल-वरे नखम्‌ अद्‌भुत-श्रृंङ्गम्‌
दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम्‌
केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥

हे केशव! हे जगत्पते! हे हरि! आपने नरसिंह का रूप धारण किया है आपकी जय हो। जिस प्रकार कोई अपने नाखूनों से भ्रमर को आसानी से कुचल सकता है उसी प्रकार भ्रमर सदृश दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर आपके सुन्दर कर-कमलों के नुकीले नाखूनों से चीर डाला गया है।

नृसिंह देव की पौराणिक कथा

पृथ्वी के उद्धार के  लिए भगवान ने वराह अवतार धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया। उसका बड़ा भाई हिरण्यकशिपु बड़ा रुष्ट हुआ। उसने अजेय होने का संकल्प किया। सहस्त्रों वर्ष बिना जल के वह स्थिर तप करता रहा। ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया , कि ना मैं दिन में  मरू ना रात  में  , ना शास्त्र से मरू , स्त्री,पुरुष तथा किन्नर,देवता ,मनुष्य  तथा दैत्य , ना आकाश में मरू ना धरती पर  किसी के द्वारा ना मारा जा सकूं और वरदान प्राप्त करके  उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। देवताओं को मार भगा दिया। स्वत: सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया। देवता कुछ नहीं कर पा रहे थे। 

‘बेटा, तुझे क्या अच्छा लगता है?’ दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने एक दिन सहज ही अपने चारों पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद से पूछा।

‘इन मिथ्या भोगों को छोड़कर वन में श्री हरि का भजन करना!’ बालक प्रह्लाद का उत्तर स्पष्ट था। दैत्यराज जब तप कर रहे थे, देवताओं ने असुरों पर आक्रमण किया। असुर उस समय भाग गये थे। यदि देवर्षि न छुड़ाते तो दैत्यराज की पत्नी कयाधु को इन्द्र पकड़ कर ले जा रहे थे। देवर्षि ने कयाधु को अपने आश्रम में शरण दी। उस समय प्रह्लाद गर्भ में थे। वहीं से देवर्षि के उपदेशों का उन पर प्रभाव पड़ चुका था।

”’इसे आप लोग ठीक-ठीक शिक्षा दें!” दैत्यराज ने पुत्र को आचार्य शुक्र के पुत्र षण्ड तथा अमर्क के पास भेज दिया। दोनों गुरुओं ने प्रयत्न किया। प्रतिभाशाली बालक ने अर्थ, धर्म, काम की शिक्षा सम्यक् रूप से प्राप्त की; परंतु जब पुन: पिता ने उससे पूछा तो उसने श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन— इन नवधा भक्ति को ही श्रेष्ठ बताया।

‘इसे मार डालो। यह मेरे शत्रु का पक्षपाती है।’ रुष्ट दैत्यराज ने आज्ञा दी। असुरों ने आघात किया। भल्ल-फलक मुड़ गये, खडग टूट गया, त्रिशूल टेढ़े हो गये; पर वह कोमल शिशु अक्षत रहा। दैत्य चौंक गए प्रह्लाद को विष दिया गया; पर वह जैसे अमृत हो। सर्प छोड़े गये उनके पास और वे फण उठाकर झूमने लगे। मत्त गजराज ने उठाकर उन्हें मस्तक पर रख लिया। पर्वत से नीचे फेंकने पर वे ऐसे उठ खड़े हुए, जैसे शय्या से उठे हों। समुद्र में पाषाण बाँधकर डुबाने पर दो क्षण पश्चात् ऊपर आ गये। घोर चिता में उनको लपटें शीतल प्रतीत हुई। गुरु पुत्रों ने मन्त्रबल से कृत्या (राक्षसी) उन्हें मारने के लिये उत्पन्न की तो वह गुरु पुत्रों को ही प्राणहीन कर गयी। प्रह्लाद ने प्रभु की प्रार्थना करके उन्हें जीवित किया। अन्त में वरुण पाश से बाँधकर गुरु पुत्र पुन: उन्हें पढ़ाने ले गये। वहाँ प्रह्लाद समस्त बालकों को भगवद्भक्ति की शिक्षा देने लगे। भयभीत गुरु पुत्रों ने दैत्येन्द्र से प्रार्थना की ‘यह बालक सब बच्चों को अपना ही पाठ पढ़ा रहा है!’

‘तू किस के बल से मेरे अनादर पर तुला है?’ हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बाँध दिया और स्वयं खड्ग उठाया।

 प्रह्लाद निर्भय थे।

‘कहाँ है वह? हिरण्यकशिपु ने कहा ।

‘मुझमें, आप में, खड्ग में, सर्वत्र! प्रह्लाद ने कहा।

‘सर्वत्र? इस स्तम्भ में भी?”हिरण्यकशिपु ने कहा ।

‘निश्चय!’ प्रह्लाद के वाक्य के साथ दैत्य ने खंभे पर घूसा मारा। स्तम्भ से बड़ी भयंकर गर्जना का शब्द हुआ। एक ही क्षण पश्चात् दैत्य ने देखा- समस्त शरीर मनुष्य का और मुख सिंह का, बड़े-बड़े नख एवं दाँत, प्रज्वलित नेत्र,  बड़ी भीषण आकृति खंभे से प्रकट हुई। दैत्य के अनुचर झपटे और मारे गये अथवा भाग गये। हिरण्यकशिपु को भगवान नृसिंह ने पकड़ लिया।

‘मुझे ब्रह्माजी ने वरदान दिया है!’ छटपटाते हुए दैत्य चिल्लाया। ‘दिन में या रात में न मरूँगा; कोई देव, दैत्य, मानव, पशु मुझे न मार सकेगा। भवन में या बाहर मेरी मृत्यु न होगी। समस्त शस्त्र मुझ पर व्यर्थ सिद्ध होंगे। भुमि, जल, गगन-सर्वत्र मैं अवध्य हूँ।’

नृसिंह बोले- ‘यह सन्ध्या काल है। मुझे देख कि मैं कौन हूँ। यह द्वार की देहली, ये मेरे नख और यह मेरी जंघा पर पड़ा तू।’ अट्टहास करके भगवान ने नखों से उसके वक्ष को विदीर्ण कर डाला।

वह उग्ररूप देखकर देवता डर गये, ब्रह्मा जी अवसन्न हो गये, महालक्ष्मी दूर से लौट आयीं; पर प्रह्लाद-वे तो प्रभु के वर प्राप्त पुत्र थे। उन्होंने स्तुति की। भगवान नृसिंह ने गोद में उठा कर उन्हें बैठा लिया और स्नेह से चाटने लगे।

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