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श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् – Chaitanya Mahaprabhu Shiksha-Ashtakam

भगवान चैतन्य महाप्रभु ने केवल आठ श्लोक ही अपनी सम्पूर्ण शिक्षा के रुप में प्रदान किये जिन्हे “शिक्षाष्टक” कहते हैं । श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं  भगवान श्री कृष्ण  हैं जो आज से पांच सौ साल पहले एक भक्त के रूप के प्रकट हुए और भगवान के नाम का प्रचार किया।

श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम्

(1)

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।।

(2)

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥

(3)

तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥

(4)

न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥

(5)

अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥

(6)

नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥

(7)

युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥

(8)

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-
मदर्शनार्न्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो
मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥

शिक्षाष्टकम् हिंदी में – अर्थ के साथ

(1)

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं 
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं 
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।।

श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।

(2)

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- 
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। 
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि 
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥

हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।

(3)

तृणादपि सुनीचेन, 
तरोरपि सहिष्णुना 
अमानिना मानदेन ,
कीर्तनीयः सदा हरिः॥

स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है।

(4)

न धनं न जनं न सुन्दरीं ,
कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे ,
भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥

हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।

(5)

अयि नन्दतनुज किङ्करं ,
पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज- 
स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥

हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए।

(6)

नयनं गलदश्रुधारया 
वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा 
तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥

हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्‌गद्‌ वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा?

(7)

युगायितं निमेषेण 
चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत्‌ सर्व 
गोविन्द-विरहेण मे॥

हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है।

(8)

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-
मदर्शनार्न्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो 
मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥

एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।

8 comments

  1. BABULAL SORATHIA

    Nicely explained
    Hare krsn

  2. Santosh Kumar Satpathy,TAMRIT COLONY,ANGUL.

    I am very very delighted having gone through the meaning of the Shikshyastaka.Many many thanks for that.

  3. Ashish Mishra

    भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की आप पर और आपकी कृपा से हम सभी पर बड़े ही कृपा दृष्टि है जो उन्होंने सार्थक उपदेश देकर आपको और हम सभी को लाभान्वित किया हे प्रभु जी आपका मन बुद्धि सदैव श्री कृष्ण के ही चरणों में लगा रहे ऐसी श्री ठाकुर जी से प्रार्थना करता हूं और आप भी हम सभी पर ऐसी ही कृपा दृष्टि बनाए रखें और हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहें

  4. mahesh suryavanshi

    भगवदप्राप्ती के लिये बहुत ही रहस्यमय मार्गदर्शन,,,इस शिष्ष्टयाष्टकं चिंतन करने से ह्रदय मे प्रेमलक्षणा भक्ती दृढ होगी,,, और जी भगवान का साक्षात्कार होगा,,,,जय श्रीकृष्ण भगवान

  5. YOGESH KUMAR

    Nicely narrated sikshastkam 🙏
    Hare Krishna hare Rama

  6. 🪷Hare Kṛṣṇa🙏🏻

  7. Subodh Mishra

    चैतन्य महाप्रभु की स्मरण हमेशा मेरे आत्मा मे विराजमान रहे प्रभु से प्रार्थना है 🙏💐🙏

  8. Hare krsna🙏🌺

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