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संसार दावानल लीढ लोक – Mangala Aarti Hindi

17वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रकट हुए श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कृष्णभावनाभवित शिष्य परंपरा में एक महान गुरु है | वे कहते हैं कि –

श्रीमदगुरोरष्टकमेतदुच्चे ब्रह्मो मूहूर्त पठति प्रयत्नात। यस्तेन वृंदावन नाथ साक्षात सवैव लभ्या जानुषोऽन्त एव ।।

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर

जो व्यक्ति ब्रह्ममुहुर्त के शुभ समय में श्रीगुरु के प्रति गुणगान  युक्त इस प्रार्थना का उच्चस्वर से एवम सावधानीपूर्वक गान करता है , उसे मृत्यु के समय वृंदावननाथ कृष्ण की प्रत्यक्ष सेवा  का अधिकार प्राप्त होता है।

गुर्वष्टकम

(1)

संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्।
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥

(2)

महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन।
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

(3)

श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना श्रृंगार-तन्‌-मन्दिर-मार्जनादौ।
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

(4)

चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद-स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्।
कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

(5)

श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार-माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

(6)

निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया।
तत्राति-दक्ष्याद्‌ अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

(7)

साक्षाद्‌-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः।
किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

(8)

यस्यप्रसादाद्‌ भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न्‌ न गति कुतोऽपि।
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

गुर्वष्टकम हिंदी में – अर्थ के साथ

(1)

संसार-दावानल-लीढ-लोक
त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्।
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य
वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥ 

श्रीगुरुदेव कृपासिन्धु से आशीर्वादी प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार वन में लगी दावाग्नि को शान्त करने हेतु बादल उस पर जल की वर्षा कर देता है , उसी प्रकार श्रीगुरुदेव भौतिक जगत् की धधकती अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत् का उद्धार करते हैं । शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥

(2)

महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन।
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥

पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए , गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए , श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। चूँकि वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हैं ,अतएव कभी – कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥

(3)

श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना।
श्रृंगार-तन्‌-मन्दिर-मार्जनादौ।
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥3॥

श्रीगुरुदेव सदैव मन्दिर में श्रीराधा – कृष्ण की पूजा में रत रहते हैं। वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अर्चाविग्रहों का शृंगार करते हैं , उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा भगवान् की इसी प्रकार की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ३

(4)

चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद-
स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्।
कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥

श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात् चाटे जाने वाले , चर्व अर्थात् चबाए जाने वाले , पेय अर्थात् पिये जाने वाले , तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले – ये चार प्रकार के स्वादिष्ट भोग अर्पण करते हैं । जब श्रीगुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ४

(5)

श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥

श्रीगुरुदेव श्री राधा – माधव के गुण, नाम, रूप तथा अनन्त मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ५

(6)

निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै
या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया।
तत्राति-दक्ष्याद्‌ अतिवल्लभस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥

श्रीगुरुदेव अति प्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्री श्रीराधा – कृष्ण की माधुर्य – लीलाओं को पूर्णता से सम्पन्न करने के हरिनाम कीर्तन निर्देशिका लिए विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का आकर्षक आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में अत्यन्त निपुण हैं । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ६

(7)

साक्षाद्‌-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः
उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः।
किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥7॥

श्री भगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण , श्रीगुरुदेव को स्वयं श्री भगवान् ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए । इस बात को सभी प्रमाणित शास्त्रों ने माना है और सारे महाजनों ने इसका पालन किया है । भगवान् श्रीहरि ( श्रीकृष्ण ) के ऐसे प्रमाणित प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥  ७

(8)

यस्यप्रसादाद्‌ भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न्‌ न गति कुतोऽपि।
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥

श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त होता है । श्रीगुरुदेव की कृपा के बिना कोई प्रगति नहीं कर सकता । अतएव मुझे सदैव श्रीगुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए । दिन में कम से कम तीन बार मुझे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में सादर नमस्कार करना चाहिए ॥ ८

प्रभुपाद के मंगला आरती से लिए हुए कथन

आध्यात्मिक गुरु की कृपा से भगवान के व्यक्तित्व की दया का बादल लाया जाता है, और तभी, जब कृष्णभावनामृत की बारिश होती है, भौतिक अस्तित्व की आग बुझ सकती है।

 श्रीमद्भागवतम( 3.21.17)  श्रील प्रभुपाद

आध्यात्मिक गुरु और कृष्ण दो समानांतर रेखाएं हैं।  ट्रेन दो पटरियों पर आगे बढ़ती है, आध्यात्मिक गुरु और कृष्ण इन दो पटरियों की तरह हैं, इसलिए उनकी एक साथ सेवा की जानी चाहिए।  कृष्ण एक सच्चे आध्यात्मिक गुरु को खोजने में मदद करते हैं और सच्चे आध्यात्मिक गुरु कृष्ण को समझने में मदद करते हैं।  अगर किसी को सच्चे आध्यात्मिक गुरु नहीं मिलते हैं, तो वह कृष्ण को कैसे समझ सकता है?  आप आध्यात्मिक गुरु के बिना कृष्ण की सेवा नहीं कर सकते, या कृष्ण की सेवा किए बिना सिर्फ आध्यात्मिक गुरु की सेवा नहीं कर सकते।  उनकी सेवा एक साथ होनी चाहिए। 

महापुरुष को पत्र, 12 फरवरी, 1968

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