श्री ब्रह्म संहिता (1) ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्॥ (2) चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्षलक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (3) वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षंबर्हावतं समसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्।कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (4) आलोलचन्द्रकलसद्ववनमाल्यवंशीरत्नागदं प्रणयकेलिकलाविलासम्।श्यामं त्रिभंगललितं नियतप्रकाशंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (5) अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्तिपश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति।आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (6) अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (7) पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्योवायोरथापि मनसो मुनिङ्गवानाम्।सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (8) एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं-यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः।अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (9) यभ्दावभावितधियो मनुजास्तथैवसम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः।सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः स्तुवन्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (10) आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (11) प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेनसन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (12) रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु।कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् योगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (13) यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-कोटिष्वशेषवसुधादि विभूतिभिन्नम्।तद् ब्रह्म निष्कलमनंतमशेषभूतंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (14) माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूतेत्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना।सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वं विशुद्धसत्त्वंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (15) आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनःसुयः प्राणिनां प्रतिफलन् स्मरतामुपेत्य।लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्रंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (16) गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्यदेवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येनगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (17) सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेकाछायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दूर्गा।इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (18) क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्सञ्जायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः।यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (19) दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्यदीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा।यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभातिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (20) यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः।आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (21) यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः।विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (22) भास्वान् यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजःस्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र।ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्तागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (23) यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भद्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः।विघ्नान् विहन्तुमलमस्य जगत्रयस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (24) अग्निर्मही गगनमम्बु मरुद्दिश श्चकालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि।यस्माद् भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं चगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (25) यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणांराजा समस्तसुरमुर्तिरशेषतेजाः।यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (26) धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसिब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः।यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (27) यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-बन्धानुरूपफलभाजनमातनोती।कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजांगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (28) यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीतिवात्सल्यमोहगुरुगौरवसेवयभावैः।स िञ्चन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेतेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (29) श्रियः कान्ताः कान्तः परमापुरुषः कल्पतरवोद्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।कथा गानं नाटयं गमनमपि वंशी प्रियसखीचिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च॥ स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीभ्यश्च सुमहान्निमेषार्धाख्यो वाव्रजति न हि यत्रापि समयः।भजे श्वेतद्वीपं तमहमिह गोलोकमिति यंविदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये॥
Year: 2022

मम मन मंदिरे – Mam Man Mandire Krishna Murari
‘मम मन मंदिरे रहो निशिदिन कृष्ण मुरारि’ नामक यह भजन वैष्णवो को अत्यंत प्रिय हैं, तथा इस भजन की रचना ब्रह्ममध्व गौडिया संप्रदाय के महान आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने की हैं। मम मन मंदिरे (1) मम मन मंदिरे रहो निशिदिन।कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ (2) भक्ति प्रिती मालाचन्दन।तुमि निओ हे निओ चितोनन्दन॥ (3) जीवन मरण तोर पूजा निवेदन।सुदर हे मन हारि॥ (4) ऐसो नन्दकुमार आर नन्दकुमार।ह’बे प्रेम प्रदिपे आरतिक तोमार॥ (5) नयने यमुना जरे अनिबार।तोमार विरहे गिरिधारी॥ (6) वंदन गनेत ताबे बजुक जीवन।कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ मम मन मंदिरे रहो निशिदिन कृष्ण मुरारि हिंदी में -अर्थ के साथ (1) मम मन मंदिरे रहो निशिदिन। कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ कृपया, दिन और रात दोनों समय, मेरे मन के मन्दिर में वास कीजिए। (2) भक्ति प्रिती मालाचन्दन। तुमि निओ हे निओ चितोनन्दन॥ भक्ति, प्रेम, पुष्प मालाएँ और चंदन कृपया स्वीकार कीजिए। हे हरि! मन को प्रसन्नचित करने वाले। (3) जीवन मरण तोर पूजा निवेदन। सुदर हे मन हारि॥ मैं जन्म या मृत्यु में, इन वस्तुओं को अर्पित करके आपकी आराधना करता हूँ, हे सुन्दर, हे मन को आकर्षित करने वाले मनोहारी! (4) ऐसो नन्दकुमार आर नन्दकुमार। ह’बे प्रेम प्रदिपे आरतिक तोमार॥ आओ! हे नन्द-नन्दन, मैं अपने प्रेम रूपी दीये से आपकी आरती उतारूँगा। (5) नयने यमुना जरे अनिबार। तोमार विरहे गिरिधारी॥ हे गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले गिरधारी! आपके विरह में यमुना नदी का जल निरन्तर मेरे नेत्रों से जलप्रपात के समान गिरता है। (6) वंदन गनेत ताबे बजुक जीवन। कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ हे कृष्ण मुरारि, श्रीकृष्ण मुरारि! मेरा जीवन केवल आपका यश गान करने में तल्लीन होकर वयतीत हो जाए
मंगला चरण – Mangla Charan Hindi
मंगला चरण (1) ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले।स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥ (2) वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपद-कमलं श्रीगुरुन् वैष्णवांश्चश्रीरूपं साग्रजातं सहगण-रघुनाथान्वितं तं सजीवम्।साद्वैतं सावधूतं परिजन सहितं कृष्ण-चैतन्य-देवम्श्रीराधा-कृष्ण-पादान्सहगण-ललिता-श्रीविशाखान्विताश्च॥ (3) हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते।गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते॥ (4) तप्तकाञ्चनगौराङ्गी राधेवृन्दावनेश्वरी।वृषभानुसुते देवी प्रणमामी हरिप्रिये॥ (5) वाञ्छा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥ (6) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द॥ (7) हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ (8) नम ॐ विष्णु पादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले।श्रीमते भक्तिवेदान्त स्वामिन् इति नामिने।।नमस्ते सारस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे।निर्विशेष शून्यवादी पाश्चात्य देश तारिणे।।
श्री जगन्नाथाष्टकम – Shree Jagannath Ashthakam
श्री जगन्नाथाष्टकम श्री जगन्नाथ जी को अत्यंत प्रिय हैं तथा भक्तों के द्वारा बड़े प्रेम से गाया जाता हैं। इसकी रचना श्री आदि शंकरा आचार्य जी ने की हैं। श्री जगन्नाथाष्टकम (1) कदाचित कालिन्दितट-विपिन-सङ्गीतक रवो मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः। रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। (2) भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे दुकूलं नेत्रान्ते सहचरि-कटाक्षं विदधते। सदा श्रीमद्वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (3) महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे वसन्प्रासादान्त सहज-बलभद्रेण बलिना। सुभद्रा-मध्यस्थः सकल-सुर-सेवावसरदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (4) कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः। सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (5) रथारूढो गच्छन् पथि मिलित-भूदेव पटलैःस्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः।दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतयाजगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (6) परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि। रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (7) न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम्। सदाकाले काले प्रमथपतिना गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। (8) हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते!। अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (9) जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः शुचि। सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥ श्री जगन्नाथाष्टकम हिंदी में -अर्थ के साथ (1) कदाचित कालिन्दितट-विपिन-सङ्गीतक रवो मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः। रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। भगवान् जगन्नाथ कभी-कभी, कालिंदी नदी के तटों पर समस्त कुंजो में, संगीत वादन करते हुए (बजाते हुए) और गाते हुए, संगीतात्मक मधुर ध्वनि उत्पन्न करते है। वे, व्रज बालाओं के कमल सदृश मुखों के अमृत रस का आस्वादन करते हुए, महान हर्षोल्लास का अनुभव करते हुए, एक भौंरे के समान हैं। उनके चरण कमल, लक्ष्मीजी, शिवजी, ब्रह्माजी, इन्द्र एवं गणेश जी जैसे महान वयक्तियों द्वारा पूजे जाते हैं। कृपया, ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ। (2) भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे दुकूलं नेत्रान्ते सहचरि-कटाक्षं विदधते। सदा श्रीमद्वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ अपने बायें हाथ में वे एक बाँसुरी धारण किए रहते हैं, अपने शीश पर एक मोरपंख, और अपने कूल्हों के चारों ओर एक उत्तम सिल्क का वस्त्र। अपने नेत्रों के कोनों से, वे अपने प्रिय साथियों पर तिरछी नजरों से दृष्टिपात करते हैं। वे श्री वृन्दावन में रहते हुए जो लीलाएँ करते हैं, उन्हें वे अत्याधिक प्रिय हैं। कृपया, ब्रहाण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ। (3) महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे वसन् प्रासादान्त सहज-बलभद्रेण बलिना। सुभद्रा-मध्यस्थः सकल-सुर-सेवावसरदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ महान समुद्र के तट पर एक विशाल महल है, जो स्वर्ण की कांति से चमकता है, और जिसके शिखर पर एक ऊँची मंदिर की मीनार है जो एक चमकदार नीले नीलमणि या नीलम जैसे पर्वत के समान प्रतीत होती है। उनके अन्दर वास करते हुए भगवान् जगन्नाथ, अपने महान भाई बलभद्र, और उन दोनों के मध्य उनकी बहन सुभद्रा के साथ, विभिन्न भक्ति कार्य सम्पन्न करने का, समस्त दैवी आत्माओं को, सेवाओं अवसर प्रदान करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हो। (4) कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः। सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ वे अहैतुकी कृपा के अथाह सागर हैं, और उनका सुन्दर वर्ण काले गहरे वर्षा के बादलों के झुंड के समान हैं। वे अपनी प्रेयसी देवी लक्ष्मी द्वारा दिए गए कठोर दंड या कटु आलोचना के स्नेहपूर्ण शब्द सुनकर अत्याधिक सुख-आनन्द प्राप्त करते हैं। उनका मुख एक बेदाग (दोष रहित) पूर्ण खिले हुए कमल पुष्प के समान है। वे श्रेष्ठ देवी देवताओं एवं साधू-संतों द्वारा पूजे जाते हैं, और उनका चरित्र व उनके कार्यकलाप सर्वोच्च मूर्तिमान उपनिषदों द्वारा गीत रूप में गाकर महिमान्वित किए जाते हैं। कृपया ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हों। (5) रथारूढो गच्छन् पथि मिलित-भूदेव पटलैः स्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः। दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतया जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ जैसे ही भगवान् अपनी रथ यात्रा के रथ पर चढ़ते हैं और सड़क पर जुलूस के रूप में आगे बढ़ते हैं, वहाँ संत, ब्रह्मणों की विशाल सभाओं द्वारा गाए गये गीतों और जोर से की गई प्रार्थनाओं का निरंतर उच्चारण चलता रहता है। उनके स्तुति-मंत्र सुनकर, भगवान् जगन्नाथ अनुकूल रूप से उनकी ओर झुक जाऐंगें। वे दया के सागर हैं, और समस्त लोकों के सच्चे मित्र हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, अपनी संगिनी लक्ष्मीजी सहित, जिनका जन्म अमृत के सागर से हुआ था, कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों। (6) परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि। रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ वे परब्रह्म (परम आध्यात्मिक वास्तविकता या सत्य) के शीश पर अलकृंत आभूषण हैं। उनके नेत्र नीले कमल पुष्प की कर्णिकाओं के समान हैं, और वे नीलाचल मन्दिर में वास करते हैं जो एक नीलमणि पर्वत के सदृश प्रतीत होता है। उनके चरण कमल भगवान् अनंतदेव के शीश पर रखे हुए हैं। वे दिवय प्रेममयी अमृत रसों की धारा से भाव विह्वल हैं, और वे केवल श्रीमती राधारानी के समधुर चित्तकर्षक दिवय रूप के आलिंगन द्वारा ही प्रसन्न होते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे भी दृष्टिगोचर हों। (7) न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम्। सदाकाले काले प्रमथपतिना गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। मैं, निश्चय ही एक राज्य प्राप्त करने के लिए प्रार्थना नहीं करता हूँ, न ही स्वर्ण, रत्न माणिक्य और धन-सम्पत्ति के लिए। मैं एक सुशील एवं सुन्दर पत्नी नहीं माँगता हूँ। जिसको पाने की सभी साधारण मनुष्य अभिलाषा करते हैं। मैं तो केवल ब्रह्माण्ड के उस स्वामी के लिए प्रार्थना करता हूँ, जिसकी महिमा भगवान् शिव द्वारा युगों-युगों से गाई जा रही है, वे कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों। (8) हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते!। अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ हे देवी-देवताओं के स्वामी! कृपया शीघ्र ही इस वयर्थ, निरर्थक भौतिक अस्तित्व को दूर ले जाइये जिसमें मैं फँसा हुआ जी रहा हूँ। हे यदुओं के स्वामी! कृपया मेरे पापपूर्ण कार्यो के फलों के असीमित संग्रह को नष्ट कर दीजिए। अहो! यह निश्चित है कि भगवान् जगन्नाथ अपने चरण कमल का आशीर्वाद उन लोगों को प्रदान करते हैं जो स्वयं को विनम्र व असहाय अनुभव करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों। (9) जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः शुचि। सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥ उस आत्मनियंत्रित एवम गुणवान् व सद्गुणी व्यक्ति जो भगवान् जगन्नाथ जी को महिमान्वित करने वाले इन आठ श्लोकों का गान करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है (उसके समस्त पाप धुल जाते हैं), और वह उचित रीति द्वारा स्वतः ही भगवान् विष्णु के धाम को प्राप्त करता है।

महाप्रसादे गोविन्दे – Mahaprasade Govinde
यह प्रसाद मंत्र प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व गाया जाता हैं प्रसादम का अर्थ है “कृपा” भागवान को भोग लगाया हुआ प्रसाद भगवान की कृपा हैं । भगवान कृष्ण का प्रसाद भगवान श्री कृष्ण का अवतार माना जाता हैं । प्रसाद मंत्र (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे।स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे।तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई।सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। प्रसाद मंत्र हिंदी में -अर्थ के साथ (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे। तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो। (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु – Shree Krishna Chaitanya Prabhu
श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु (1) श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे ।तोमा बिना के दयालु जगत् संसारे ॥ (2) पतित पावन हेतु तव अवतार ।मो सम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥ (3) हा हा प्रभु नित्यानंद ! प्रेमानंद सुखी ।कृपावलोकन करो आमि बड़ दुखी ॥ (4) दया करो सीतापति अद्वैत गोसाइ ।तव कृपाबले पाए चैतन्य निताई ॥ (5) हा हा स्वरूप, सनातन ,रूप ,रघुनाथ ।भट्ट युग,श्रीजीव ,हा प्रभु लोकनाथ ॥ (6) दया करो श्री आचार्य प्रभु श्रीनिवास ।रामचंद्र संग मांगे नरोत्तम दास ॥ (1) श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे । तोमा बिना के दयालु जगत् संसारे ॥ हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है? (2) पतित पावन हेतु तव अवतार । मो सम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥ हे प्रभु! पतितों को पावन करने हेतु ही आपका अवतार हुआ है, अतः मेरे समान पतित आपको और कहीं नहीं मिलेगा। (3) हा हा प्रभु नित्यानंद ! प्रेमानंद सुखी । कृपावलोकन करो आमि बड़ दुखी ॥ हे नित्यानंद प्रभु! आप तो सदैव गौरांगदेव के प्रेमानन्द में मत्त रहते हैं। कृपापूर्वक मेरे प्रति आप दृष्टिपात कीजिए, क्योंकि मैं बहुत दुःखी हूँ। (4) दया करो सीतापति अद्वैत गोसाइ । तव कृपाबले पाए चैतन्य निताई ॥ हे अद्वैतआचार्य! आप मुझपर कृपा कीजिए क्योंकि आपके कृपाबल से ही चैतन्य-निताई के चरणों की प्राप्ति संभव हो सकती है। (5) हा हा स्वरूप, सनातन ,रूप ,रघुनाथ । भट्ट युग,श्रीजीव ,हा प्रभु लोकनाथ ॥ हे श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी! हे श्रील सनातन गोस्वामी! हे श्रील रूप गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथदास गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! हे श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी! हे श्रील जीव गोस्वामी! तथा श्रील लोकनाथ गोस्वामी! आप सब मुझपर कृपा कीजिए, ताकि मुझे श्री चैतन्य-चरणों की प्राप्ति हो। (6) दया करो श्री आचार्य प्रभु श्रीनिवास । रामचंद्र संग मांगे नरोत्तम दास ॥ श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना कर रहे हैं, ‘‘हे श्रीनिवास आचार्य! आप मुझपर कृपा करें, ताकि मैं श्रीरामचन्द्र कविराज का संग प्राप्त कर सकूँ। ’’
10 नाम अपराध – Naam Apradh ISKCON
दस नाम अपराधों को पद्म पुराण में इस प्रकार सूचीबद्ध किया गया है। चैतन्य- चरितमित्र (आदि लीला 8.24, तात्पर्य) में उद्धृत है। प्रत्येक वैष्ण्व भक्त को चाहिए कि इन दस प्रकार के अपराधों से सदा बच कर रहे, ताकि श्रीकृष्ण के चरण कमलों में प्रेम शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो, जो मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। (1) सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते।यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम्।। भगवान्नाम के प्रचार में सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले महाभागवतों की निन्दा करना। (2) शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादिसकलं।धिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः। शिव, ब्रह्मा आदि देवों के नाम को भगवान्नाम के समान अथवा उससे स्वतन्त्र समझना। (3) गुरोरवज्ञा । गुरु की अवज्ञा करना अथवा उन्हें साधारण मनुषय समझना। (4) श्रुतिशाñनिन्दनम्। वैदिक शास्त्रों अथवा प्रमाणों का खण्डन करना। (5) हरिनाम्नि कल्पनम्। हरे कृष्ण महामन्त्र के जप की महिमा को काल्पनिक समझना। (6) अर्थवादः। पवित्र भगवन्नाम में अर्थवाद का आरोप करना। (7) नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर् न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः। नाम के बल पर पाप करना। (8) धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः। हरे कृष्ण महामन्त्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म (कर्मकाण्ड) के समान समझना। (9) अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः शिवनामापराधः। अश्रद्धालु व्यक्त्ति को हरिनाम की महिमा का उपदेश करना। (10) श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः अहंममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत्अपि प्रमादः।। भगवन्नाम के जप में पूर्ण विश्वास न होना और इसकी इतनी अगाध महिमा श्रवण करने पर भी भौतिक आसक्ति बनाये रखना। भगवन्नाम का जप करते समय पूर्ण रूप से सावधान न रहना भी अपराध है।
योगिनी एकादशी व्रत कथा – Yogini Ekadashi
हरे कृष्ण ।। एकदशी भगवान श्री कृष्ण को अति प्रिय है तथा भगवान श्री कृष्ण की प्रेम भक्ति प्रदान करने वाली है । वैसे तो साल में चौबीस एकादशी मनाई जाती है उनमें से एक हैं योगिनी एकादशी तो आइए जानते है योगिनी एकादशी व्रत कथा । युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘योगिनी’ है। यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है । अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका ‘हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम ‘विशालाक्षी’ था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका । इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : ‘यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?’ यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।’ कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई । तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?’ यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये । मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया । नृपश्रेष्ठ ! यह ‘योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । ‘योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । हरे कृष्ण

जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले – Jeev Jago
जीव जागो नामक यह वैष्णव भजन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा रचित हैं। इस भजन के माध्यम से श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी कृष्ण को भूले जीव को फिर से कृष्ण प्रेम याद दिला रहे हैं तथा हरि नाम की महिमा का गान कर रहे हैं। जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले (1) जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥ (2) भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे।भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥ (3) तोमार लइते आमि हइनु अवतार।आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥ (4) एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि।हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥ (5) भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया।सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥ जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले हिंदी में – अर्थ के साथ (1) जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले। कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥ श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे? (2) भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे। भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥ तूम इस जगत में यह कहते हुए आए थे, ‘हे मेरे भगवान्, मैं आपकी आराधना व भजन अवश्य करूँगा,’ लेकिन जगत में आकर अविद्या (माया)में फँसकर तूम वह प्रतिज्ञा को भूल गए हो। (3) तोमार लइते आमि हइनु अवतार। आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥ अतः तुम्हे लेने के लिए मैं स्वयं ही इस जगत में अवतरित हुआ हूँ। अब तूम स्वयं विचार करो कि मेरे अतिरिक्त तुम्हारा बन्धु (सच्चा मित्र) अन्य कौन है? (4) एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि। हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥ मैं माया रूपी रोग का विनाश करने वाली औषधि “हरिनाम महामंत्र” लेकर आया हूँ। अतः तुम कृपया मुझसे महामंत्र मांग ले। (5) भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया। सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥ श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी श्रीमन्महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर हरे कृष्ण महामंत्र बहुत विनम्रता पूर्वक मांग लिया है।

निर्जला एकादशी व्रत कथा – Nirjala Ekadashi
निर्जला एकादशी को भीमसेन एकादशी या पाण्डव एकादशी के नाम से भी जाना जाता हैं। इस साल ये 11 जून (June ) 2022 को मनाई जाएगी। वैष्णव एवं हिंदी माह के अनुसार ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को निर्जला एकादशी व्रत रखा जाता है। सभी एकादशी में से निर्जला एकादशी व्रत सबसे महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि निर्जला एकादशी का व्रत करने से साल में पड़ने वाली 24 एकदाशियो का फल प्राप्त होता है । आइए हम जानते हैं निर्जला एकादशी व्रत कथा तथा विधि के विषय में – निर्जला एकादशी व्रत विधि निर्जला एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि कर स्वच्छ कपड़े पहनने के बाद भगवान के समक्ष व्रत का संकल्प करना चाहिए भगवान श्री कृष्ण को तुलसी दल अर्पित करना चाहिए तथा अधिक से अधिक हरि नाम का जप करना चाहिए ,भगवान के विषय में अधिक से अधिक श्रवण करना चाहिए तथा पूर्णता भगवान की सेवा में खुद को लगाना चाहिए । द्वादशी के दिन व्रत का पारण करना अनिवार्य होता हैं बिना पारण के एकादशी का व्रत अधूरा माना जाता हैं ।व्रत खोलने का समय है – 12 जून (June ) 2022 – Fast Breaking Time – 06:00 – 10:25 AM निर्जला एकादशी व्रत कथा युधिष्ठिर ने कहा: जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं । तब वेदव्यासजी कहने लगे: दोनों ही पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करे । द्वादशी के दिन स्नान आदि से पवित्र हो फूलों से भगवान केशव की पूजा करे । फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहलेब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे । राजन् ! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए । यह सुनकर भीमसेन बोले: परम बुद्धिमान पितामह ! मेरी उत्तम बात सुनिये । राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि : ‘भीमसेन ! तुम भी एकादशी को न खाया करो…’ किन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी । भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा : यदि तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और नरक को दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों की एकादशीयों के दिन भोजन न करना । भीमसेन बोले : महाबुद्धिमान पितामह ! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ । एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता, फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ? मेरे उदर में वृकनामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है । इसलिए महामुने ! मैं वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ । जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये । मैं उसका यथोचित रुप से पालन करुँगा । व्यासजी ने कहा: भीम ! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो । केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डालसकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है । एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्णहोता है । तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे । इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे । वर्षभर में जितनी एकादशीयाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि: ‘यदि मानवसबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है ।’ एकादशी व्रत करने वाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते । अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले, हाथ में सुदर्शन धारण करने वाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आखिर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं । अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्री हरि का पूजन करो । स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है । जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है । उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है । मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है । निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है । इस लोक में वह चाण्डालके समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है । जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे । जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जातेहैं । कुन्तीनन्दन ! ‘निर्जला एकादशी’ के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो: उस दिन जल में शयन करने वाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है । पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँति के मिष्ठान्नों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए । ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर