Your Cart

Call us toll free: +91 840 999 4333

All the prices mentioned on the website are inclusive of all taxes.

महाप्रसादे गोविन्दे – Mahaprasade Govinde

यह प्रसाद मंत्र प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व गाया जाता हैं प्रसादम का अर्थ है “कृपा” भागवान को भोग लगाया हुआ प्रसाद भगवान की कृपा हैं । भगवान कृष्ण का प्रसाद भगवान श्री कृष्ण का अवतार माना जाता हैं । प्रसाद मंत्र (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे।स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे।तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई।सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। प्रसाद मंत्र हिंदी में -अर्थ के साथ (1) महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥[महाभारत] गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत] (2) शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे। तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥ शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्‌टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। (3) कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ भगवान्‌ कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो। (श्री पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु – Shree Krishna Chaitanya Prabhu

श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु (1) श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे ।तोमा बिना के दयालु जगत् संसारे ॥ (2) पतित पावन हेतु तव अवतार ।मो सम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥ (3) हा हा प्रभु नित्यानंद ! प्रेमानंद सुखी ।कृपावलोकन करो आमि बड़ दुखी ॥ (4) दया करो सीतापति अद्वैत गोसाइ ।तव कृपाबले पाए चैतन्य निताई ॥ (5) हा हा स्वरूप, सनातन ,रूप ,रघुनाथ ।भट्ट युग,श्रीजीव ,हा प्रभु लोकनाथ ॥ (6) दया करो श्री आचार्य प्रभु श्रीनिवास ।रामचंद्र संग मांगे नरोत्तम दास ॥ (1) श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे । तोमा बिना के दयालु जगत् संसारे ॥ हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है? (2) पतित पावन हेतु तव अवतार । मो सम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥ हे प्रभु! पतितों को पावन करने हेतु ही आपका अवतार हुआ है, अतः मेरे समान पतित आपको और कहीं नहीं मिलेगा। (3) हा हा प्रभु नित्यानंद ! प्रेमानंद सुखी । कृपावलोकन करो आमि बड़ दुखी ॥ हे नित्यानंद प्रभु! आप तो सदैव गौरांगदेव के प्रेमानन्द में मत्त रहते हैं। कृपापूर्वक मेरे प्रति आप दृष्टिपात कीजिए, क्योंकि मैं बहुत दुःखी हूँ। (4) दया करो सीतापति अद्वैत गोसाइ । तव कृपाबले पाए चैतन्य निताई ॥ हे अद्वैतआचार्य! आप मुझपर कृपा कीजिए क्योंकि आपके कृपाबल से ही चैतन्य-निताई के चरणों की प्राप्ति संभव हो सकती है। (5) हा हा स्वरूप, सनातन ,रूप ,रघुनाथ । भट्ट युग,श्रीजीव ,हा प्रभु लोकनाथ ॥ हे श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी! हे श्रील सनातन गोस्वामी! हे श्रील रूप गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथदास गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथ भट्‌ट गोस्वामी! हे श्रील गोपाल भट्‌ट गोस्वामी! हे श्रील जीव गोस्वामी! तथा श्रील लोकनाथ गोस्वामी! आप सब मुझपर कृपा कीजिए, ताकि मुझे श्री चैतन्य-चरणों की प्राप्ति हो। (6) दया करो श्री आचार्य प्रभु श्रीनिवास । रामचंद्र संग मांगे नरोत्तम दास ॥ श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना कर रहे हैं, ‘‘हे श्रीनिवास आचार्य! आप मुझपर कृपा करें, ताकि मैं श्रीरामचन्द्र कविराज का संग प्राप्त कर सकूँ। ’’

10 नाम अपराध – Naam Apradh ISKCON

दस नाम अपराधों को पद्म पुराण में इस प्रकार सूचीबद्ध किया गया है। चैतन्य- चरितमित्र (आदि लीला 8.24, तात्पर्य) में उद्धृत है। प्रत्येक वैष्ण्व भक्त को चाहिए कि इन दस प्रकार के अपराधों से सदा बच कर रहे, ताकि श्रीकृष्ण के चरण कमलों में प्रेम शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो, जो मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। (1) सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते।यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम्।। भगवान्नाम के प्रचार में सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले महाभागवतों की निन्दा करना। (2) शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादिसकलं।धिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः। शिव, ब्रह्मा आदि देवों के नाम को भगवान्नाम के समान अथवा उससे स्वतन्त्र समझना। (3) गुरोरवज्ञा । गुरु की अवज्ञा करना अथवा उन्हें साधारण मनुषय समझना। (4) श्रुतिशाñनिन्दनम्। वैदिक शास्त्रों अथवा प्रमाणों का खण्डन करना। (5) हरिनाम्नि कल्पनम्। हरे कृष्ण महामन्त्र के जप की महिमा को काल्पनिक समझना। (6) अर्थवादः। पवित्र भगवन्नाम में अर्थवाद का आरोप करना। (7) नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर् न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः। नाम के बल पर पाप करना। (8) धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः। हरे कृष्ण महामन्त्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म (कर्मकाण्ड) के समान समझना। (9) अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः शिवनामापराधः। अश्रद्धालु व्यक्त्ति को हरिनाम की महिमा का उपदेश करना। (10) श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः अहंममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत्अपि प्रमादः।। भगवन्नाम के जप में पूर्ण विश्वास न होना और इसकी इतनी अगाध महिमा श्रवण करने पर भी भौतिक आसक्ति बनाये रखना। भगवन्नाम का जप करते समय पूर्ण रूप से सावधान न रहना भी अपराध है।

योगिनी एकादशी व्रत कथा – Yogini Ekadashi

हरे कृष्ण ।। एकदशी भगवान श्री कृष्ण को अति प्रिय है तथा भगवान श्री कृष्ण की प्रेम भक्ति प्रदान करने वाली है । वैसे तो साल में चौबीस एकादशी मनाई जाती है उनमें से एक हैं योगिनी एकादशी तो आइए जानते है योगिनी एकादशी व्रत कथा । युधिष्ठिर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ़ के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘योगिनी’ है। यह बड़े बडे पातकों का नाश करनेवाली है। संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है । अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका ‘हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम ‘विशालाक्षी’ था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका । इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : ‘यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?’ यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।’ कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई । तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?’ यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये । मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया । नृपश्रेष्ठ ! यह ‘योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । ‘योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । हरे कृष्ण

जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले – Jeev Jago

जीव जागो नामक यह वैष्णव भजन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा रचित हैं। इस भजन के माध्यम से श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी कृष्ण को भूले जीव को फिर से कृष्ण प्रेम याद दिला रहे हैं तथा हरि नाम की महिमा का गान कर रहे हैं। जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले (1) जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥ (2) भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे।भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥ (3) तोमार लइते आमि हइनु अवतार।आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥ (4) एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि।हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥ (5) भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया।सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥ जीव जागो जीव जागो गोराचाँद बोले हिंदी में – अर्थ के साथ (1) जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले। कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥ श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे? (2) भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे। भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥ तूम इस जगत में यह कहते हुए आए थे, ‘हे मेरे भगवान्‌, मैं आपकी आराधना व भजन अवश्य करूँगा,’ लेकिन जगत में आकर अविद्या (माया)में फँसकर तूम वह प्रतिज्ञा को भूल गए हो। (3) तोमार लइते आमि हइनु अवतार। आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥ अतः तुम्हे लेने के लिए मैं स्वयं ही इस जगत में अवतरित हुआ हूँ। अब तूम स्वयं विचार करो कि मेरे अतिरिक्त तुम्हारा बन्धु (सच्चा मित्र) अन्य कौन है? (4) एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि। हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥ मैं माया रूपी रोग का विनाश करने वाली औषधि “हरिनाम महामंत्र” लेकर आया हूँ। अतः तुम कृपया मुझसे महामंत्र मांग ले। (5) भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया। सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥ श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी श्रीमन्महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर हरे कृष्ण महामंत्र बहुत विनम्रता पूर्वक मांग लिया है।

निर्जला एकादशी व्रत कथा – Nirjala Ekadashi

निर्जला एकादशी को भीमसेन एकादशी या पाण्डव एकादशी के नाम से भी जाना जाता हैं। इस साल ये 11 जून (June ) 2022 को मनाई जाएगी। वैष्णव एवं हिंदी माह के अनुसार ज्येष्ठ मा​ह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को निर्जला एकादशी व्रत रखा जाता है। सभी एकादशी में से निर्जला एकादशी व्रत सबसे महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि निर्जला एकादशी का व्रत करने से साल में पड़ने वाली 24 एकदाशियो का फल प्राप्त होता है । आइए हम जानते हैं निर्जला एकादशी व्रत कथा तथा विधि के विषय में – निर्जला एकादशी व्रत विधि  निर्जला एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि कर स्वच्छ कपड़े पहनने के बाद  भगवान के समक्ष व्रत का संकल्प करना चाहिए भगवान श्री कृष्ण को तुलसी दल अर्पित करना चाहिए  तथा अधिक से अधिक हरि नाम का जप करना चाहिए ,भगवान के विषय में अधिक से अधिक  श्रवण करना  चाहिए तथा  पूर्णता भगवान की सेवा में खुद को लगाना चाहिए । द्वादशी के दिन व्रत का पारण करना अनिवार्य होता हैं बिना पारण के एकादशी का व्रत अधूरा माना जाता हैं ।व्रत खोलने का समय है – 12 जून (June ) 2022 – Fast Breaking Time – 06:00 – 10:25 AM निर्जला एकादशी व्रत कथा  युधिष्ठिर ने कहा: जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं । तब वेदव्यासजी कहने लगे: दोनों ही पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करे । द्वादशी के दिन स्नान आदि से पवित्र हो फूलों से भगवान केशव की पूजा करे । फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहलेब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे । राजन् ! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए । यह सुनकर भीमसेन बोले: परम बुद्धिमान पितामह ! मेरी उत्तम बात सुनिये । राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि : ‘भीमसेन ! तुम भी एकादशी को न खाया करो…’ किन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी । भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा : यदि तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और नरक को दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों की एकादशीयों के दिन भोजन न करना । भीमसेन बोले : महाबुद्धिमान पितामह ! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ । एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता, फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ? मेरे उदर में वृकनामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है । इसलिए महामुने ! मैं वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ । जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये । मैं उसका यथोचित रुप से पालन करुँगा । व्यासजी ने कहा: भीम ! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो । केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डालसकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है । एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्णहोता है । तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे । इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे । वर्षभर में जितनी एकादशीयाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि: ‘यदि मानवसबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है ।’ एकादशी व्रत करने वाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते । अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले, हाथ में सुदर्शन धारण करने वाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आखिर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं । अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्री हरि का पूजन करो । स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है । जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है । उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है । मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है । निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है । इस लोक में वह चाण्डालके समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है । जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे । जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जातेहैं । कुन्तीनन्दन ! ‘निर्जला एकादशी’ के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो: उस दिन जल में शयन करने वाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है । पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँति के मिष्ठान्नों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए । ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर

जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन – Jaya Radhe Jaya Krishna

“जय राधे ,जय कृष्ण, जय वृन्दावन”  नामक यह वैष्णव  भजन कृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा रचित हैं । तथा वैष्णव भक्तों के बीच यह भजन अत्यंत लोकप्रिय हैं। जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन (1) जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन ।श्री गोविंदा, गोपीनाथ, मदन-मोहन ॥ (2) श्याम-कुंड, राधा-कुंड, गिरि-गोवर्धन ।कालिंदी जमुना जय, जय महावन ॥ (3) केशी-घाट, बंसीवट, द्वादश-कानन ।जहां सब लीला कोइलो श्री-नंद-नंदनी ।। (4) श्री-नंद-यशोदा जय, जय गोप-गण ।श्रीदामादि जय, जय धेनु-वत्स-गण ॥ (5) जय वृषभानु, जय कीर्तिदा सुंदरी ।जय पूरणमासी, जय अभिरा नगरी ॥ (6) जय जय गोपिश्वर वृंदावन-माझ ।जय जय कृष्ण-सखा बटु द्विज-राज ॥ (7) जय राम-घाट, जया रोहिणी-नंदन ।जय जय वृंदावन, बासी-जत-जन ॥ (8) जय द्विज-पत्नी जय, नाग-कन्या-गण ।भक्ति जहर पाईलो, गोविंद चरण ॥ (9) श्री-रास-मंगल जय, जय राधा-श्याम ।जय जय रास-लीला, सर्व-मनोरम ॥ (10) जय जय उज्ज्वल-रस, सर्व-रस-सार ।पारकिया-भावे जाह, ब्रजते प्रचार ॥ (11) श्री जाह्नवा पाद पद्म कोरिया स्मरण ।दीन कृष्ण दास कोहे नाम संकीर्तन॥ जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन हिंदी में – अर्थ के साथ (1) जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन । श्री गोविंदा, गोपीनाथ, मदन-मोहन ॥ राधा-कृष्ण तथा वृंदावन धाम की जय हो। श्री गोविंद, गोपीनाथ तथा मदनमोहन- वृंदावन के इन तीन अधिष्ठाता विग्रहों की जय हो। (2) श्याम-कुंड, राधा-कुंड, गिरि-गोवर्धन । कालिंदी जमुना जय, जय महावन ॥ श्यामकुण्ड, राधाकुण्ड, गिरिगोवर्धन तथा यमुना की जय हो। कृष्ण और बलराम के बाल्य क्रीडास्थल महावन की जय हो। (3) केशी-घाट, बंसीवट, द्वादश-कानन । जहां सब लीला कोइलो श्री-नंद-नंदनी ।। जहाँ कृष्ण ने केशी राक्षस का वध किया था, उस केशी-घाट की जय हो। जहाँ कृष्ण ने अपनी मुरली से सब गोपिकाओं को आकर्षित किया था, उस वंशी-वट की जय हो। व्रज के द्वाद्वश वनों की जय हो, जहाँ नन्दनंदन श्रीकृष्ण ने सब लीलायें कीं। (4) श्री-नंद-यशोदा जय, जय गोप-गण । श्रीदामादि जय, जय धेनु-वत्स-गण ॥ कृष्ण के दिवय माता-पिता, नंद और यशोदा की जय हो। राधारानी और अनंग मंजरी के बड़े भााई श्रीदामा सहित सब गोपबालकों की जय हो। व्रज के सब गाय-बछड़ों की जय हो। (5) जय वृषभानु, जय कीर्तिदा सुंदरी । जय पूरणमासी, जय अभिरा नगरी ॥ राधाजी के दिवय माता-पिता, वृषभानु और कीर्तिदा की जय हो। संदीपनि मुनि की मां, मधुमंगल व नंदीमुखी की दादी एवं देवर्षि नारद की प्रिय शिष्या- पौर्णमासी की जय हो। व्रज की युवा गोपिकाओं की जय हो। (6) जय जय गोपिश्वर वृंदावन-माझ । जय जय कृष्ण-सखा बटु द्विज-राज ॥ पवित्र धाम के संरक्षणार्थ निवास करने वाले गोपीश्वर शिव की जय हो। कृष्ण के ब्राह्मण-सखा मधुमंगल की जय हो। (7) जय राम-घाट, जया रोहिणी-नंदन । जय जय वृंदावन, बासी-जत-जन ॥ जहाँ बलराम जी ने रास रचाया था, उस राम-घाट की जय हो। रोहिणीनंदन बलराम जी की जय हो। सब वृंदावनवासियों की जय हो। (8) जय द्विज-पत्नी जय, नाग-कन्या-गण । भक्ति जहर पाईलो, गोविंद चरण ॥ गर्वीले यज्ञिक ब्राह्मणों की पत्नियों की जय हो। कालिय नाग की पत्नियों की जय हो, जिन्होंने भक्ति के द्वारा गोविन्द के श्रीचरणों को प्राप्त किया। (9) श्री-रास-मंगल जय, जय राधा-श्याम । जय जय रास-लीला, सर्व-मनोरम ॥ श्री रासमण्डल की जय हो। राधा और श्याम की जय हो। कृष्ण की लीलाओं में सबसे मनोरम, रासलीला की जय हो। (10) जय जय उज्ज्वल-रस, सर्व-रस-सार । पारकिया-भावे जाह, ब्रजते प्रचार ॥ समस्त रसों के सारस्वरूप माधुर्यरस की जय हो, भगवान्‌ कृष्ण ने परकीय-भाव में जिसका प्रचार ब्रज में किया। (11) श्री जाह्नवा पाद पद्म कोरिया स्मरण । दीन कृष्ण दास कोहे नाम संकीर्तन॥ नित्यानंद प्रभु की संगिनी श्री जाह्नवा देवी के चरणकमलों का स्मरण कर यह दीन-हीन कृष्णदास नाम संकीर्तन कर रहा है।

श्रीमद्भागवतम मंगला चरण – Shrimad Bhagwatam Mangla Charan

श्रीमदभागवतम कथा आरंभ करने से पूर्व इन श्लोकों का पाठ करना अनिवार्य हैं तथा इन श्लोकों को मंगला चरण के रूप में गाया जाता हैं। (SB 1.2.4) नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ (1) विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमद्भागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान् नारायण को, नरोत्तम नर-नारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रंथकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे। [श्रीमद भागवतम 1.2.4] (SB 1.2.17) शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः। हृद्यन्तः स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥ (2) प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण, उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है, क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्त पुण्यप्रद हैं। [श्रीमद भागवतम 1.2.17] (SB 1.2.18) नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया। भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी॥ (3) भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है। [श्रीमद भागवतम 1.2.18]

श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् – Chaitanya Mahaprabhu Shiksha-Ashtakam

भगवान चैतन्य महाप्रभु ने केवल आठ श्लोक ही अपनी सम्पूर्ण शिक्षा के रुप में प्रदान किये जिन्हे “शिक्षाष्टक” कहते हैं । श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं  भगवान श्री कृष्ण  हैं जो आज से पांच सौ साल पहले एक भक्त के रूप के प्रकट हुए और भगवान के नाम का प्रचार किया। श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणंश्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनंसर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापिदुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये।मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा।पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-मदर्शनार्न्महतां करोतु वा।यथा तथा वा विदधातु लम्पटोमत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ शिक्षाष्टकम् हिंदी में – अर्थ के साथ (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए। (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्‌गद्‌ वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा- मदर्शनार्न्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।

गौरांङ्ग बलिते हबे पुलक-शरीर – Gauranga Bolite

यह वैष्णव भजन श्रील नरोत्तम दास ठाकुर जी द्वारा रचित हैं । इस भजन में नरोत्तम दास ठाकुर जी  नित्यानंद  प्रभु से भगवान श्री कृष्ण की अहैतु की भक्ति की प्रार्थना करते हैं। गौरांङ्ग बलिते (1) ‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥ (2) आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे।संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे॥ (3) विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे मन।कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन॥ (4) रूप-रघुनाथ-पदे हइबे आकुति।कबे हाम बुझब से युगल पिरीति॥ (5) रूप-रघुनाथ-पदे रहु मोर आश।प्रार्थना करये सदा नरोत्तमदास॥ गौरांङ्ग बलिते हिंदी में – अर्थ के साथ (1) ‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर। ‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥ वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे? (2) आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे। संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे॥ कब श्रीनित्यानंद प्रभु मुझ पर अपनी कृपावर्षा करेंगे, कि जिससे मेरी समस्त भौतिक भोग की इच्छायें तुच्छ हो जायेंगी। (3) विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे मन। कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन॥ कब मेरा मन भौतिक सुख के विषयों को त्यागकर निर्मल होगा? कब मैं श्रीवृन्दावन धाम का वास्तविक दर्शन कर पाऊँगा। (4) रूप-रघुनाथ-पदे हइबे आकुति। कबे हाम बुझब से युगल पिरीति॥ श्रीरूप-रघुनाथ गोस्वामी (षड्‌गोस्वामीवृन्द) के चरण-दर्शन के लिए कब मैं व्याकुल हो उठूँगा। कब मैं श्रीश्री राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम-व्यापार को समझने में समर्थ हो सकूँगा। (5) रूप-रघुनाथ-पदे रहु मोर आश। प्रार्थना करये सदा नरोत्तमदास॥ श्रील नरोत्तमदास ठाकुर सदा यही प्रार्थना करते हैं ‘‘श्रील रूपगोस्वामी-श्रील रघुनाथदास गोस्वामी के चरणों में मेरी सदा आशा बनी रहे। ’’

Free India shipping

On all orders above ₹1500

Easy 7 days returns

7 days money back guarantee

International Warranty

Offered in the country of usage

100% Secure Checkout

MasterCard / Visa / UPI

Look At Our Most Selling Product

(1 customer review)

Original price was: ₹4,999.00.Current price is: ₹1,499.00.