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जय जय गोराचाँदेर आरती को शोभा – Gaur Aarti

गौर आरती संध्या को  7:15 बजे श्री श्री गौर निताई की प्रसन्नता के लिए गाई जाती है । सभी भक्त बड़े आनंद तथा उल्लास के साथ इस आरती का गान करते है। एक भक्त इस आरती को गाते है तथा बाकी सभी भक्त उन भक्त के पीछे-पीछे गाते हैं।  इस आरती के लेखक भक्तिविनोद ठाकुर हैं । भक्तिविनोद ठाकुर ब्रम्हमध्वगौडिया संप्रदाय के महान आचार्य तथा एक महान कृष्ण भक्त थे । इस गीत  का आधिकारिक नाम श्री गौर आरती है। यह गीत गीतावली पुस्तक से लिया गया है (अनुभाग: आरती कीर्तन गीत)। गौर आरती (1) (किब) जय जय गोराचाँदेर आरति को शोभा ।जाह्नवी – तटवने जगमन – लोभा II (2) दक्षिणे निताइचाँद , बामे गदाधर ।निकटेअद्वैत श्रीनिवास छत्रधर ॥ (3) बसियाछे गोराचाँद रत्न सिंहासने ।आरति करेन ब्रह्मा – आदि देव गणे ॥ (4) नरहरि आदि करि ‘ चामर ढुलाय ।सञ्जय मुकुन्द – वासु घोष – आदि गाय II (5) शंख बाजे घण्टा बाजे , बाजे करताल ।मधुर मृदंग बाजे , परम रसाल ॥ (शंख बाजे घंटा बाजे , मधुर मधुर मधुर बाजे – 3 बार ) (6) बहु कोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल ।गल देशे वनमाला करे झलमल ॥ (7) शिव – शुक – नारद प्रेमे गदगदा ।भकतिविनोद देखे गोरार सम्पद ॥ (पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।। गौर आरती हिंदी में – अर्थ के साथ (1) (किब) जय जय गोराचाँदेर आरति को शोभा । जाह्नवी – तटवने जगमन – लोभा II श्रीचैतन्य महाप्रभु की सुन्दर आरती की जय हो, जय हो। यह गौर-आरती गंगा तट पर स्थित एक कुंज में हो रही है तथा संसार के समस्त जीवों को आकर्षित कर रही है।  (2) दक्षिणे निताइचाँद , बामे गदाधर । निकटेअद्वैत श्रीनिवास छत्रधर ॥ उनके दाहिनी ओर नित्यानन्द प्रभु हैं तथा बायीं ओर श्रीगदाधर हैं। चैतन्य महाप्रभु के दोनों ओर श्रीअद्वैत प्रभु तथा श्रीवास प्रभु उनके मस्तक के ऊपर छत्र लिए हुए खड़ें हैं। (3) बसियाछे गोराचाँद रत्न सिंहासने । आरति करेन ब्रह्मा – आदि देव गणे ॥  चैतन्य महाप्रभु सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं तथा ब्रह्माजी उनकी आरती कर रहे हैं, अन्य देवतागण भी उपस्थित हैं। (4) नरहरि आदि करि ‘ चामर ढुलाय । सञ्जय मुकुन्द – वासु घोष – आदि गाय II  चैतन्य महाप्रभु के अन्य पार्षद, जैसे नरहरि आदि चँवर डुला रहे हैं तथा मुकुन्द एवं वासुघोष, जो कुशल गायक हैं, कीर्तन कर रहे हैं। (5) शंख बाजे घण्टा बाजे , बाजे करताल । मधुर मृदंग बाजे , परम रसाल ॥ (शंख बाजे घंटा बाजे , मधुर मधुर मधुर बाजे – 3 बार ) शंख, करताल तथा मृदंग की मधुर ध्वनि सुनने में अत्यन्त प्रिय लग रही है। (6) बहु कोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल । गल देशे वनमाला करे झलमल ॥  चैतन्य महाप्रभु का मुखमण्डल करोड़ों चन्द्रमा की भांति उद्‌भासित हो चमक रहा है तथा उनकी वनकुसुमों की माला भी चमक रही है। (7) शिव – शुक – नारद प्रेमे गदगदा । भकतिविनोद देखे गोरार सम्पद ॥ महादेव, श्रीशुकदेव गोस्वामी तथा नारद मुनि के कंठ प्रेममय दिवय आवेग से अवरुद्ध हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैंः तनिक चैतन्य महाप्रभु का वैभव तो देखो। (पंच-तत्व प्रणाम मंत्र) जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।। मैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ,श्री नित्यानंद प्रभु, श्री अद्वैत आचार्य प्रभु, श्री गदाधर पंडित प्रभु तथा श्री वास पंडित प्रभु सहित अन्यान्य सभी गौरभक्तों को प्रणाम करता हूं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। सारांश तो इस प्रकार भक्तिविनोद ठाकुर गौर आरती के सार के बारे में बताते हैं जो सभी को आकर्षित कर रही है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद और अन्य सहयोगियों के साथ हैं, वे एक भव्य सिंहासन पर विराजमान हैं और ब्रह्मा जी अन्य देवताओं के साथ उनकी आरती कर रहे हैं। सभी महान वैष्णव और देवता बड़े आनंद के साथ महाप्रभु की सेवा कर रहे हैं। हरे कृष्ण !

गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि – Darshan Aarti

ब्रह्मसंहिता एक संस्कृत पंचरात्र ग्रन्थ है, जिसमें सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी द्वारा भगवान कृष्ण या गोविन्द की स्तुति की गयी है। गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय में इस ग्रन्थ की बहुत प्रतिष्ठा है।तथा आज भी गौडीय वैष्णव के भक्त दर्शन आरती के समय यह श्लोक गाते है। दर्शन आरती के समय सभी भक्त बड़े आनंद तथा उल्लास के साथ इन श्लोकों को गाते हुए श्री श्री राधा श्यामसुन्दर के दर्शन करते है। वैसे तो कथित तौर पर ब्रम्हा संहिता में 100 अध्याय है पर  अधिकांश भाग समय के साथ विलुप्त  हो गया।  पर चैतन्य महाप्रभु  ने आदि केशव मंदिर से ब्रह्म संहिता के पांचवे अध्याय को पुन: प्राप्त किया । गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि। (ब्रह्म संहिता – 30) वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं बर्हावतं समसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्। कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥  जो वेणु बजाने में दक्ष हैं, कमल की पंखुडियों जैसे जिनके प्रफुल्ल नेत्र हैं, जिनका मस्तक मोरपंख से आभूषित है, जिनके अंग नीले बादलों जैसे सुंदर हैं और जिनकी विशेष शोभा करोड़ों कामदेवों को भी लुभाती है, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ। (ब्रह्म संहिता – 32) अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति। आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्य गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ जिनका दिवय श्री विग्रह आनंद, चिन्मयता तथा सत्‌ से पूरित होने के कारण परमोज्जवल है, जिनके चिन्मय शरीर का प्रत्येक अंग अन्यान्य सभी इंद्रियों की पूर्ण-विकसित वृत्तियों से युक्त है, जो चिरकाल से आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों जगतों को देखते, पालन करते तथा प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्‌ गोविंद का मैं भजन करता हूँ। गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।

नमस्ते नरसिंहाय: Narsimha Aarti Lyrics

नृसिंह आरती की अंतिम तीन पंक्तियाँ  गीत गोविंद के श्री दशावतार स्तोत्र से उद्धृत की गईं हैं। इसकी रचना भगवान के महान भक्त श्रील जयदेव गोस्वामी द्वारा की गई है । नरसिंह : नर + सिंह (“मानव-सिंह”)  पुराणों में भगवान नरसिंह को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। जो आधे मानव एवं आधे सिंह के रूप में प्रकट होते हैं, जिनका  धड तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे । तथा भगवान नरसिंह अपने भक्त प्रह्लाद के लिए प्रकट हुए । भगवान नरसिंह विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं। भगवान नरसिंहदेव भगवान विष्णु के अवतार हैं।  वे आधे पुरुष और आधे सिंह रूप में पूजे जाते हैं।  दैत्य  हिरण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान  ने कई सदियों पहले यह अवतार लिया था।  अपने ही भक्त पुत्र प्रह्लाद की हत्या करने की कोशिश कर रहा था।क्योंकि प्रह्लाद भगवान विष्णु को सर्वोच्च मानते थे।  भगवान नरसिंह दैत्य हिरणकश्यप को नष्ट करने और अपने निर्दोष भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए प्रकट हुए।  उन्हें मुख्य रूप से ‘महान रक्षक’ के रूप में जाना जाता है जो विशेष रूप से आवश्यकता के समय अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। इस आरती के माध्यम से हम उन्ही भगवान नरसिंह को नमन करते हैं और उनसे हमारी रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं जिस प्रकार उन्होंने प्रह्लाद महाराज की करी थी। नरसिंह देव की जय! नृसिंह आरती (1) नमस्ते नरसिंहाय प्रह्लादाह्लाद-दायिने।हिरण्यकशिपोर्वक्षः-शिला-टङ्क-नखालये।। (2) इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो यतो यतो यामि ततो नृसिंहः।बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥ (3) तव कर-कमल-वरे नखम्‌ अद्‌भुत-श्रृंङ्गम्‌दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम्‌केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥ जय जगदीश हरे, जय जगदीश हरे, जय जगदीश हरे॥ नृसिंह आरती हिंदी में – अर्थ के साथ (1) नमस्ते नरसिंहाय प्रह्लादाह्लाद-दायिने। हिरण्यकशिपोर्वक्षः- शिला-टङ्क-नखालये।। मैं नृसिंह भगवान्‌ को प्रणाम करता हूँ जो प्रह्लाद महाराज को आनन्द प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके नख दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पाषाण सदृश वक्षस्थल के ऊपर छेनी के समान हैं। (2) इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो यतो यतो यामि ततो नृसिंहः। बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥ नृसिंह भगवान्‌ यहाँ है और वहाँ भी हैं। मैं जहाँ कहीं भी जाता हॅूँ वहाँ नृसिंह भगवान्‌ हैं। वे हृदय में हैं और बाहर भी हैं। मैं नृसिंह भगवान्‌ की शरण लेता हूँ जो समस्त पदार्थों के स्रोत तथा परम आश्रय हैं। (3) तव कर-कमल-वरे नखम्‌ अद्‌भुत-श्रृंङ्गम्‌ दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम्‌ केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥ हे केशव! हे जगत्पते! हे हरि! आपने नरसिंह का रूप धारण किया है आपकी जय हो। जिस प्रकार कोई अपने नाखूनों से भ्रमर को आसानी से कुचल सकता है उसी प्रकार भ्रमर सदृश दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर आपके सुन्दर कर-कमलों के नुकीले नाखूनों से चीर डाला गया है। नृसिंह देव की पौराणिक कथा पृथ्वी के उद्धार के  लिए भगवान ने वराह अवतार धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया। उसका बड़ा भाई हिरण्यकशिपु बड़ा रुष्ट हुआ। उसने अजेय होने का संकल्प किया। सहस्त्रों वर्ष बिना जल के वह स्थिर तप करता रहा। ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया , कि ना मैं दिन में  मरू ना रात  में  , ना शास्त्र से मरू , स्त्री,पुरुष तथा किन्नर,देवता ,मनुष्य  तथा दैत्य , ना आकाश में मरू ना धरती पर  किसी के द्वारा ना मारा जा सकूं और वरदान प्राप्त करके  उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। देवताओं को मार भगा दिया। स्वत: सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया। देवता कुछ नहीं कर पा रहे थे।  ‘बेटा, तुझे क्या अच्छा लगता है?’ दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने एक दिन सहज ही अपने चारों पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद से पूछा। ‘इन मिथ्या भोगों को छोड़कर वन में श्री हरि का भजन करना!’ बालक प्रह्लाद का उत्तर स्पष्ट था। दैत्यराज जब तप कर रहे थे, देवताओं ने असुरों पर आक्रमण किया। असुर उस समय भाग गये थे। यदि देवर्षि न छुड़ाते तो दैत्यराज की पत्नी कयाधु को इन्द्र पकड़ कर ले जा रहे थे। देवर्षि ने कयाधु को अपने आश्रम में शरण दी। उस समय प्रह्लाद गर्भ में थे। वहीं से देवर्षि के उपदेशों का उन पर प्रभाव पड़ चुका था। ”’इसे आप लोग ठीक-ठीक शिक्षा दें!” दैत्यराज ने पुत्र को आचार्य शुक्र के पुत्र षण्ड तथा अमर्क के पास भेज दिया। दोनों गुरुओं ने प्रयत्न किया। प्रतिभाशाली बालक ने अर्थ, धर्म, काम की शिक्षा सम्यक् रूप से प्राप्त की; परंतु जब पुन: पिता ने उससे पूछा तो उसने श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन— इन नवधा भक्ति को ही श्रेष्ठ बताया। ‘इसे मार डालो। यह मेरे शत्रु का पक्षपाती है।’ रुष्ट दैत्यराज ने आज्ञा दी। असुरों ने आघात किया। भल्ल-फलक मुड़ गये, खडग टूट गया, त्रिशूल टेढ़े हो गये; पर वह कोमल शिशु अक्षत रहा। दैत्य चौंक गए प्रह्लाद को विष दिया गया; पर वह जैसे अमृत हो। सर्प छोड़े गये उनके पास और वे फण उठाकर झूमने लगे। मत्त गजराज ने उठाकर उन्हें मस्तक पर रख लिया। पर्वत से नीचे फेंकने पर वे ऐसे उठ खड़े हुए, जैसे शय्या से उठे हों। समुद्र में पाषाण बाँधकर डुबाने पर दो क्षण पश्चात् ऊपर आ गये। घोर चिता में उनको लपटें शीतल प्रतीत हुई। गुरु पुत्रों ने मन्त्रबल से कृत्या (राक्षसी) उन्हें मारने के लिये उत्पन्न की तो वह गुरु पुत्रों को ही प्राणहीन कर गयी। प्रह्लाद ने प्रभु की प्रार्थना करके उन्हें जीवित किया। अन्त में वरुण पाश से बाँधकर गुरु पुत्र पुन: उन्हें पढ़ाने ले गये। वहाँ प्रह्लाद समस्त बालकों को भगवद्भक्ति की शिक्षा देने लगे। भयभीत गुरु पुत्रों ने दैत्येन्द्र से प्रार्थना की ‘यह बालक सब बच्चों को अपना ही पाठ पढ़ा रहा है!’ ‘तू किस के बल से मेरे अनादर पर तुला है?’ हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बाँध दिया और स्वयं खड्ग उठाया।  प्रह्लाद निर्भय थे। ‘कहाँ है वह? हिरण्यकशिपु ने कहा । ‘मुझमें, आप में, खड्ग में, सर्वत्र! प्रह्लाद ने कहा। ‘सर्वत्र? इस स्तम्भ में भी?”हिरण्यकशिपु ने कहा । ‘निश्चय!’ प्रह्लाद के वाक्य के साथ दैत्य ने खंभे पर घूसा मारा। स्तम्भ से बड़ी भयंकर गर्जना का शब्द हुआ। एक ही क्षण पश्चात् दैत्य ने देखा- समस्त शरीर मनुष्य का और मुख सिंह का, बड़े-बड़े नख एवं दाँत, प्रज्वलित नेत्र,  बड़ी भीषण आकृति खंभे से प्रकट हुई। दैत्य के अनुचर झपटे और मारे गये अथवा भाग गये। हिरण्यकशिपु को भगवान नृसिंह

संसार दावानल लीढ लोक – Mangala Aarti Hindi

17वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रकट हुए श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कृष्णभावनाभवित शिष्य परंपरा में एक महान गुरु है | वे कहते हैं कि – श्रीमदगुरोरष्टकमेतदुच्चे ब्रह्मो मूहूर्त पठति प्रयत्नात। यस्तेन वृंदावन नाथ साक्षात सवैव लभ्या जानुषोऽन्त एव ।। – श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जो व्यक्ति ब्रह्ममुहुर्त के शुभ समय में श्रीगुरु के प्रति गुणगान  युक्त इस प्रार्थना का उच्चस्वर से एवम सावधानीपूर्वक गान करता है , उसे मृत्यु के समय वृंदावननाथ कृष्ण की प्रत्यक्ष सेवा  का अधिकार प्राप्त होता है। गुर्वष्टकम (1) संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्।प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥ (2) महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन।रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (3) श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना श्रृंगार-तन्‌-मन्दिर-मार्जनादौ।युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (4) चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद-स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्।कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (5) श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार-माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (6) निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया।तत्राति-दक्ष्याद्‌ अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (7) साक्षाद्‌-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः।किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (8) यस्यप्रसादाद्‌ भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न्‌ न गति कुतोऽपि।ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ गुर्वष्टकम हिंदी में – अर्थ के साथ (1) संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥ श्रीगुरुदेव कृपासिन्धु से आशीर्वादी प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार वन में लगी दावाग्नि को शान्त करने हेतु बादल उस पर जल की वर्षा कर देता है , उसी प्रकार श्रीगुरुदेव भौतिक जगत् की धधकती अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत् का उद्धार करते हैं । शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ (2) महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥ पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए , गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए , श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। चूँकि वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हैं ,अतएव कभी – कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ (3) श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना। श्रृंगार-तन्‌-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥3॥ श्रीगुरुदेव सदैव मन्दिर में श्रीराधा – कृष्ण की पूजा में रत रहते हैं। वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अर्चाविग्रहों का शृंगार करते हैं , उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा भगवान् की इसी प्रकार की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ३ (4) चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥ श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात् चाटे जाने वाले , चर्व अर्थात् चबाए जाने वाले , पेय अर्थात् पिये जाने वाले , तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले – ये चार प्रकार के स्वादिष्ट भोग अर्पण करते हैं । जब श्रीगुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ४ (5) श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार- माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्। प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥ श्रीगुरुदेव श्री राधा – माधव के गुण, नाम, रूप तथा अनन्त मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ५ (6) निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया। तत्राति-दक्ष्याद्‌ अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥ श्रीगुरुदेव अति प्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्री श्रीराधा – कृष्ण की माधुर्य – लीलाओं को पूर्णता से सम्पन्न करने के हरिनाम कीर्तन निर्देशिका लिए विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का आकर्षक आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में अत्यन्त निपुण हैं । ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ६ (7) साक्षाद्‌-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः। किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥7॥ श्री भगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण , श्रीगुरुदेव को स्वयं श्री भगवान् ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए । इस बात को सभी प्रमाणित शास्त्रों ने माना है और सारे महाजनों ने इसका पालन किया है । भगवान् श्रीहरि ( श्रीकृष्ण ) के ऐसे प्रमाणित प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥  ७ (8) यस्यप्रसादाद्‌ भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न्‌ न गति कुतोऽपि। ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥ श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त होता है । श्रीगुरुदेव की कृपा के बिना कोई प्रगति नहीं कर सकता । अतएव मुझे सदैव श्रीगुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए । दिन में कम से कम तीन बार मुझे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में सादर नमस्कार करना चाहिए ॥ ८ प्रभुपाद के मंगला आरती से लिए हुए कथन आध्यात्मिक गुरु की कृपा से भगवान के व्यक्तित्व की दया का बादल लाया जाता है, और तभी, जब कृष्णभावनामृत की बारिश होती है, भौतिक अस्तित्व की आग बुझ सकती है।  श्रीमद्भागवतम( 3.21.17)  श्रील प्रभुपाद आध्यात्मिक गुरु और कृष्ण दो समानांतर रेखाएं हैं।  ट्रेन दो पटरियों पर आगे बढ़ती है, आध्यात्मिक गुरु और कृष्ण इन दो पटरियों की तरह हैं, इसलिए उनकी एक साथ सेवा की जानी चाहिए।  कृष्ण एक सच्चे आध्यात्मिक गुरु को खोजने में मदद करते हैं और सच्चे आध्यात्मिक गुरु कृष्ण को समझने में मदद करते हैं।  अगर किसी को सच्चे आध्यात्मिक गुरु नहीं मिलते हैं, तो वह कृष्ण को कैसे समझ सकता है?  आप आध्यात्मिक गुरु के बिना कृष्ण की सेवा नहीं कर सकते, या कृष्ण की सेवा किए बिना सिर्फ आध्यात्मिक गुरु की सेवा नहीं कर सकते।  उनकी सेवा एक साथ होनी चाहिए।  महापुरुष को पत्र, 12 फरवरी, 1968

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