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जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन – Jaya Radhe Jaya Krishna

“जय राधे ,जय कृष्ण, जय वृन्दावन”  नामक यह वैष्णव  भजन कृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा रचित हैं । तथा वैष्णव भक्तों के बीच यह भजन अत्यंत लोकप्रिय हैं। जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन (1) जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन ।श्री गोविंदा, गोपीनाथ, मदन-मोहन ॥ (2) श्याम-कुंड, राधा-कुंड, गिरि-गोवर्धन ।कालिंदी जमुना जय, जय महावन ॥ (3) केशी-घाट, बंसीवट, द्वादश-कानन ।जहां सब लीला कोइलो श्री-नंद-नंदनी ।। (4) श्री-नंद-यशोदा जय, जय गोप-गण ।श्रीदामादि जय, जय धेनु-वत्स-गण ॥ (5) जय वृषभानु, जय कीर्तिदा सुंदरी ।जय पूरणमासी, जय अभिरा नगरी ॥ (6) जय जय गोपिश्वर वृंदावन-माझ ।जय जय कृष्ण-सखा बटु द्विज-राज ॥ (7) जय राम-घाट, जया रोहिणी-नंदन ।जय जय वृंदावन, बासी-जत-जन ॥ (8) जय द्विज-पत्नी जय, नाग-कन्या-गण ।भक्ति जहर पाईलो, गोविंद चरण ॥ (9) श्री-रास-मंगल जय, जय राधा-श्याम ।जय जय रास-लीला, सर्व-मनोरम ॥ (10) जय जय उज्ज्वल-रस, सर्व-रस-सार ।पारकिया-भावे जाह, ब्रजते प्रचार ॥ (11) श्री जाह्नवा पाद पद्म कोरिया स्मरण ।दीन कृष्ण दास कोहे नाम संकीर्तन॥ जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन हिंदी में – अर्थ के साथ (1) जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन । श्री गोविंदा, गोपीनाथ, मदन-मोहन ॥ राधा-कृष्ण तथा वृंदावन धाम की जय हो। श्री गोविंद, गोपीनाथ तथा मदनमोहन- वृंदावन के इन तीन अधिष्ठाता विग्रहों की जय हो। (2) श्याम-कुंड, राधा-कुंड, गिरि-गोवर्धन । कालिंदी जमुना जय, जय महावन ॥ श्यामकुण्ड, राधाकुण्ड, गिरिगोवर्धन तथा यमुना की जय हो। कृष्ण और बलराम के बाल्य क्रीडास्थल महावन की जय हो। (3) केशी-घाट, बंसीवट, द्वादश-कानन । जहां सब लीला कोइलो श्री-नंद-नंदनी ।। जहाँ कृष्ण ने केशी राक्षस का वध किया था, उस केशी-घाट की जय हो। जहाँ कृष्ण ने अपनी मुरली से सब गोपिकाओं को आकर्षित किया था, उस वंशी-वट की जय हो। व्रज के द्वाद्वश वनों की जय हो, जहाँ नन्दनंदन श्रीकृष्ण ने सब लीलायें कीं। (4) श्री-नंद-यशोदा जय, जय गोप-गण । श्रीदामादि जय, जय धेनु-वत्स-गण ॥ कृष्ण के दिवय माता-पिता, नंद और यशोदा की जय हो। राधारानी और अनंग मंजरी के बड़े भााई श्रीदामा सहित सब गोपबालकों की जय हो। व्रज के सब गाय-बछड़ों की जय हो। (5) जय वृषभानु, जय कीर्तिदा सुंदरी । जय पूरणमासी, जय अभिरा नगरी ॥ राधाजी के दिवय माता-पिता, वृषभानु और कीर्तिदा की जय हो। संदीपनि मुनि की मां, मधुमंगल व नंदीमुखी की दादी एवं देवर्षि नारद की प्रिय शिष्या- पौर्णमासी की जय हो। व्रज की युवा गोपिकाओं की जय हो। (6) जय जय गोपिश्वर वृंदावन-माझ । जय जय कृष्ण-सखा बटु द्विज-राज ॥ पवित्र धाम के संरक्षणार्थ निवास करने वाले गोपीश्वर शिव की जय हो। कृष्ण के ब्राह्मण-सखा मधुमंगल की जय हो। (7) जय राम-घाट, जया रोहिणी-नंदन । जय जय वृंदावन, बासी-जत-जन ॥ जहाँ बलराम जी ने रास रचाया था, उस राम-घाट की जय हो। रोहिणीनंदन बलराम जी की जय हो। सब वृंदावनवासियों की जय हो। (8) जय द्विज-पत्नी जय, नाग-कन्या-गण । भक्ति जहर पाईलो, गोविंद चरण ॥ गर्वीले यज्ञिक ब्राह्मणों की पत्नियों की जय हो। कालिय नाग की पत्नियों की जय हो, जिन्होंने भक्ति के द्वारा गोविन्द के श्रीचरणों को प्राप्त किया। (9) श्री-रास-मंगल जय, जय राधा-श्याम । जय जय रास-लीला, सर्व-मनोरम ॥ श्री रासमण्डल की जय हो। राधा और श्याम की जय हो। कृष्ण की लीलाओं में सबसे मनोरम, रासलीला की जय हो। (10) जय जय उज्ज्वल-रस, सर्व-रस-सार । पारकिया-भावे जाह, ब्रजते प्रचार ॥ समस्त रसों के सारस्वरूप माधुर्यरस की जय हो, भगवान्‌ कृष्ण ने परकीय-भाव में जिसका प्रचार ब्रज में किया। (11) श्री जाह्नवा पाद पद्म कोरिया स्मरण । दीन कृष्ण दास कोहे नाम संकीर्तन॥ नित्यानंद प्रभु की संगिनी श्री जाह्नवा देवी के चरणकमलों का स्मरण कर यह दीन-हीन कृष्णदास नाम संकीर्तन कर रहा है।

श्रीमद्भागवतम मंगला चरण – Shrimad Bhagwatam Mangla Charan

श्रीमदभागवतम कथा आरंभ करने से पूर्व इन श्लोकों का पाठ करना अनिवार्य हैं तथा इन श्लोकों को मंगला चरण के रूप में गाया जाता हैं। (SB 1.2.4) नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ (1) विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमद्भागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान् नारायण को, नरोत्तम नर-नारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रंथकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे। [श्रीमद भागवतम 1.2.4] (SB 1.2.17) शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः। हृद्यन्तः स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥ (2) प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण, उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है, क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्त पुण्यप्रद हैं। [श्रीमद भागवतम 1.2.17] (SB 1.2.18) नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया। भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी॥ (3) भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है। [श्रीमद भागवतम 1.2.18]

श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् – Chaitanya Mahaprabhu Shiksha-Ashtakam

भगवान चैतन्य महाप्रभु ने केवल आठ श्लोक ही अपनी सम्पूर्ण शिक्षा के रुप में प्रदान किये जिन्हे “शिक्षाष्टक” कहते हैं । श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं  भगवान श्री कृष्ण  हैं जो आज से पांच सौ साल पहले एक भक्त के रूप के प्रकट हुए और भगवान के नाम का प्रचार किया। श्री श्री चैतन्य शिक्षाष्टकम् (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणंश्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनंसर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापिदुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये।मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा।पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-मदर्शनार्न्महतां करोतु वा।यथा तथा वा विदधातु लम्पटोमत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ शिक्षाष्टकम् हिंदी में – अर्थ के साथ (1) चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।। श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। (2) नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥ हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। (3) तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन , कीर्तनीयः सदा हरिः॥ स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। (4) न धनं न जनं न सुन्दरीं , कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे , भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। (5) अयि नन्दतनुज किङ्करं , पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए। (6) नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्‌गद्‌ वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? (7) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। (8) आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा- मदर्शनार्न्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥ एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।

गौरांङ्ग बलिते हबे पुलक-शरीर – Gauranga Bolite

यह वैष्णव भजन श्रील नरोत्तम दास ठाकुर जी द्वारा रचित हैं । इस भजन में नरोत्तम दास ठाकुर जी  नित्यानंद  प्रभु से भगवान श्री कृष्ण की अहैतु की भक्ति की प्रार्थना करते हैं। गौरांङ्ग बलिते (1) ‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥ (2) आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे।संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे॥ (3) विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे मन।कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन॥ (4) रूप-रघुनाथ-पदे हइबे आकुति।कबे हाम बुझब से युगल पिरीति॥ (5) रूप-रघुनाथ-पदे रहु मोर आश।प्रार्थना करये सदा नरोत्तमदास॥ गौरांङ्ग बलिते हिंदी में – अर्थ के साथ (1) ‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर। ‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥ वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे? (2) आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे। संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे॥ कब श्रीनित्यानंद प्रभु मुझ पर अपनी कृपावर्षा करेंगे, कि जिससे मेरी समस्त भौतिक भोग की इच्छायें तुच्छ हो जायेंगी। (3) विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे मन। कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन॥ कब मेरा मन भौतिक सुख के विषयों को त्यागकर निर्मल होगा? कब मैं श्रीवृन्दावन धाम का वास्तविक दर्शन कर पाऊँगा। (4) रूप-रघुनाथ-पदे हइबे आकुति। कबे हाम बुझब से युगल पिरीति॥ श्रीरूप-रघुनाथ गोस्वामी (षड्‌गोस्वामीवृन्द) के चरण-दर्शन के लिए कब मैं व्याकुल हो उठूँगा। कब मैं श्रीश्री राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम-व्यापार को समझने में समर्थ हो सकूँगा। (5) रूप-रघुनाथ-पदे रहु मोर आश। प्रार्थना करये सदा नरोत्तमदास॥ श्रील नरोत्तमदास ठाकुर सदा यही प्रार्थना करते हैं ‘‘श्रील रूपगोस्वामी-श्रील रघुनाथदास गोस्वामी के चरणों में मेरी सदा आशा बनी रहे। ’’

दामोदर अष्टकम – Damodar Ashtakam

दामोदर अष्टकम सत्यव्रता मुनि द्वारा कहा गया है तथा इसे श्रील व्यासदेव जी ने लिखा हैं ।भगवान श्री कृष्ण का प्रिय माह  कार्तिक में वैष्णव प्रति दिन संध्या के समय दामोदर अष्टकम का गान करते हैं तथा दीप दान भी करते हैं । शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि कार्तिक मास में  दामोदर अष्टकम का पाठ करने से भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है।  दामोदर अष्टकम (1) नमामीश्वरं सच्चिदानंदरूपं लसत्कुण्डलं गोकुले भ्राजमानम्‌यशोदाभियोलूखलाद्धावमानं परामृष्टमत्यं ततो द्रुत्य गोप्या॥ (2) रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं कराम्भोज-युग्मेन सातङ्कनेत्रम्।मुहुःश्वास कम्प-त्रिरेखाङ्ककण्ठ स्थित ग्रैव-दामोदरं भक्तिबद्धम्॥ (3) इतीद्दक्‌स्वलीलाभिरानंद कुण्डे स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम्।तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वं पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे॥ (4) वरं देव! मोक्षं न मोक्षावधिं वा न चान्यं वृणेऽहं वरेशादपीह।इदं ते वपुर्नाथ गोपाल बालं सदा मे मनस्याविरस्तां किमन्यैः?॥ (5) इदं ते मुखाम्भोजमत्यन्तनीलै- र्वृतं कुन्तलैः स्निग्ध-रक्तैश्च गौप्या।मुहुश्चुम्बितं बिम्बरक्ताधरं मे मनस्याविरस्तामलं लक्षलाभैः॥ (6) नमो देव दामोदरानन्त विष्णो! प्रसीद प्रभो! दुःख जालाब्धिमग्नम्।कृपाद्दष्टि-वृष्टयातिदीनं बतानु गृहाणेश मामज्ञमेध्यक्षिदृश्यः॥ (7) कुबेरात्मजौ बद्धमूर्त्यैव यद्वत्‌ त्वया मोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च।तथा प्रेमभक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह॥ (8) नमस्तेऽस्तु दाम्ने स्फुरद्दीप्तिधाम्ने त्वदीयोदरायाथ विश्वस्य धाम्ने।नमो राधिकायै त्वदीय-प्रियायै नमोऽनन्त लीलाय देवाय तुभ्यम्॥ दामोदर अष्टकम हिंदी में – अर्थ के साथ (1) नमामीश्वरं सच्चिदानंदरूपं लसत्कुण्डलं गोकुले भ्राजमानम्‌ यशोदाभियोलूखलाद्धावमानं परामृष्टमत्यं ततो द्रुत्य गोप्या॥ जिनका सर्वेश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है, जिनके कपोलों पर मकराकृत कुंडल हिलडुल रहे हैं, जो गोकुल नामक दिवय धाम में परम शोभायमान हैं, जो (दधिभाण्ड फोड़ने के कारण) माँ यशोदा के डर से ऊखल से दूर दौड़ रहे हैं किन्तु जिन्हें माँ यशोदा ने उनसे भी अधिक वेगपूर्वक दौड़कर पकड लिया है- ऐसे भगवान्‌ दामोदर को मैं अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ।  (2) रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं कराम्भोज-युग्मेन सातङ्कनेत्रम्। मुहुःश्वास कम्प-त्रिरेखाङ्ककण्ठ स्थित ग्रैव-दामोदरं भक्तिबद्धम्॥ (माँ के हाथ में लठिया देखकर) वे रोते-रोते बारम्बार अपनी आँखों को अपने दोनों हस्तकमलों से मसल रहे हैं। उनके नेत्र भय से विह्वल हैं, रूदन के आवेग से सिसकियाँ लेने के कारण उनके त्रिरेखायुक्त कण्ठ में पड़ी हुई मोतियों की माला कम्पित हो रही है। उन परमेश्वर भगवान्‌ दामोदर का, जिनका उदर रस्सियों से नहीं अपितु यशोदा माँ के वात्सल्य-प्रेम से बंधा है, मैं प्रणाम करता हूँ।  (3) इतीद्दक्‌स्वलीलाभिरानंद कुण्डे स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम्। तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वं पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे॥ जो ऐसी बाल्य-लीलाओं के द्वारा गोकुलवासियों को आनन्द-सरोवरों में डुबोते रहते हैं, और अपने ऐश्वर्य-ज्ञान में मग्न अपने भावों के प्रति यह तथ्य प्रकाशित करते हैं कि उन्हें भय-आदर की धारणाओं से मुक्त अंतरंग प्रेमी भक्तों द्वारा ही जीता जा सकता है, उन भगवान्‌ दामोदर को मं कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।  (4) वरं देव! मोक्षं न मोक्षावधिं वा न चान्यं वृणेऽहं वरेशादपीह। इदं ते वपुर्नाथ गोपाल बालं सदा मे मनस्याविरस्तां किमन्यैः?॥ हे प्रभु, यद्यपि आप हर प्रकार के वर देने में समर्थ हैं, तथापि मैं आपसे न तो मोक्ष अथवा मोक्ष के चरम सीमारूप वैकुण्ठ में शाश्वत जीवन और ही (नवधा भक्ति द्वारा प्राप्त) कोई अन्य वरदान माँगता हूँ। हे नाथ! मेरी तो बस इतनी ही इच्छा है कि आपका यह वृंदावन का बालगोपाल रूप मेरे हृदय में सदा प्रकाशित रहे, क्योंकि इसके सिवा मुझे किसी अन्य वरदान से प्रयोजन ही क्या है?  (5) इदं ते मुखाम्भोजमत्यन्तनीलै- र्वृतं कुन्तलैः स्निग्ध-रक्तैश्च गौप्या। मुहुश्चुम्बितं बिम्बरक्ताधरं मे मनस्याविरस्तामलं लक्षलाभैः॥ हे प्रभु! लालिमायुक्त कोमल श्यामवर्ण के घुँघराले बालों से घिरा हुआ आपका मुखकमल माँ यशोदा के द्वारा बारंबार चुम्बित हो रहा है और आपके होंठ बिम्बफल की भांति लाल हैं। आपके मुखमंडल का यह सुन्दर दृश्य मेरे हृदय में सदा विराजित रहे। मुझे लाखों प्रकार के दूसरे लाभों की कोई आवश्यकता नहीं।  (6) नमो देव दामोदरानन्त विष्णो! प्रसीद प्रभो! दुःख जालाब्धिमग्नम्। कृपाद्दष्टि-वृष्टयातिदीनं बतानु गृहाणेश मामज्ञमेध्यक्षिदृश्यः॥ हे भगवान्‌, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे दामोदर, हे अनंत, हे विष्णु, हे नाथ, मेरे प्रभु, मुझपर प्रसन्न हो जाइये! मैं दुःखों के सागर में डूबा जा रहा हूँ। मेरे ऊपर अपनी कृपादृष्टि की वर्षा करके मुझ दीन-हीन शरणागत का उद्वार कीजिए और मेरे नेत्रों के समझ प्रकट हो जाइये।  (7) कुबेरात्मजौ बद्धमूर्त्यैव यद्वत्‌ त्वया मोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च। तथा प्रेमभक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह॥ हे भगवान! दामोदर, जिस प्रकार आपने दामोदर रूप से नलकूबर और मणिग्रीव नामक कुबेरपुत्रों को नारद जी के शाप से मुक्तकर उन्हें अपना महान भक्त बना लिया था, उसी प्रकार मुझे भी आप अपनी प्रेम भक्ति प्रदान कर दीजिए। यही मेरा एकमात्र आग्रह है मुझे किसी भी प्रकार के मोझ की कोई इच्छा नहीं है।  (8) नमस्तेऽस्तु दाम्ने स्फुरद्दीप्तिधाम्ने त्वदीयोदरायाथ विश्वस्य धाम्ने। नमो राधिकायै त्वदीय-प्रियायै नमोऽनन्त लीलाय देवाय तुभ्यम्॥ हे भगवान्‌ दामोदर, मैं सर्वप्रथम आपके उदर को बाँधने वाली दीप्तिमान रस्सी को प्रणाम करता हूँ। आपकी प्रियतमा श्रीमती राधारानी के चरणों में मेरा सादर प्रणाम है, और अनंत लीलायें करने वाले आप परमेश्वर को मेरा प्रणाम है।

मधुराष्टकम – Madhurashtakam – अधरं मधुरं वदनं मधुरं

मधुराष्टकम में  भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप का मधुरता से वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण के प्रत्येक अंग, गतिविधियां एवं क्रिया-कलाप मधुर है। वल्लभसम्प्रदाय वैष्णव सम्प्रदाय के भगवान के परम भक्त श्रीवल्लभाचार्य जी ने इसकी रचना की हैं। मधुराष्टकम (1) अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।हृदयं मधुरं गमनं मधुरं  मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ (2) वचनं मधुरं चरितं मधुरं  वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ (3) वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादो मधुरौ।नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ (4) गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्।रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ (5) करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।वमितं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ (6) गुञ्जा मधुरा, माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा।सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेराखिलंमधुरम्॥ (7) गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं भुक्तं मधुरम्।हृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ (8) गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ मधुराष्टकम हिंदी में – अर्थ के साथ (1) अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम्। हृदयं मधुरं गमनं मधुरं  मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ उनके होंठ मधुर है, उनका मुख मधुर है, उनके नेत्र मधुर हैं, उनकी मुस्कान मधुर है, उनका हृदय मधुर है, उनकी चाल मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर है।  (2) वचनं मधुरं चरितं मधुरं  वसनं मधुरं वलितं मधुरम्। चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ उनके शब्द मधुर हैं, उनका चरित्र मधुर है, उनकी पोशाक मधुर है, उनके उदर के मोड़ मधुर हैं, उनकी गतिविधियाँ मधुर हैं, उनका भ्रमण करना (घुमना) मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं।  (3) वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादो मधुरौ। नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ उनकी बाँसुरी (मुरली) मधुर है, उनके पाँव की रज मधुर है, उनके पाँव मधुर हैं, उनका नृत्य करना मधुर है, उनकी मित्रता मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं। (4) गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्। रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ उनका गायन मधुर है, उनके पीत वस्त्र (पीले वस्त्र) मधुर हैं, उनका खाना मधुर है, उनका शयन करना मधुर है, उनका सौंदर्य मधुर है, उनका तिलक मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं।  (5) करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम्। वमितं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ उनके कार्य मधुर हैं, उनका मुक्ति प्रदान करना मधुर है, उनका चोरी करना मधुर है, उनकी जल-क्रीडाएँ मधुर हैं, उनका अर्पित करना मधुर है, उनकी निस्तब्धता या शांत रहना मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं।  (6) गुञ्जा मधुरा, माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा। सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेराखिलंमधुरम्॥ उनका गुञ्जा-बेरी का हार मधुर है, उनकी पुष्प-माला मधुर है, उनकी यमुना नदी मधुर है, उनकी लहरें मधुर हैं, उनका जल मधुर है, उनके कमल मधुर हैं- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं।  (7) गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं भुक्तं मधुरम्। हृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ उनकी गोपियाँ मधुर हैं, उनकी लीलाएँ मधुर हैं, उनका संयोजन या सम्मिलन मधुर है, उनका भोजन मधुर हैं, उनकी प्रसन्नता मधुर है उनकी शिष्टता (या शिष्ट वयवहार) मधुर है- मधुरता के सम्राट के विषय में सभी वस्तुएँ मधुर हैं।  (8) गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा। दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ उनके गोप मधुर हैं, उनकी गायें मधुर हैं, उनके कर्मचारीगण मधुर हैं, उनकी सृष्टि मधुर है, उनका कुचलना या रौंदना मधुर है, उनका लाभदायक या सफल होना मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर है।

श्रीगुरुचरण पद्म – Sri Guru Charana Padma

श्री गुरु वंदना (Guru Vandana) प्रेम-भक्ति-चंद्रिका से श्रील नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित एक प्रार्थना है। गुरु वंदना प्रतिदिन गुरु पूजा के दौरान गाई जाती हैं । श्रीगुरुचरण पद्म – गुरु वंदना (1) श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म, वन्दो मुइ सावधान मते।याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥ (2) गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा।श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति, ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥ (3) चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित।प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥ (4) श्रीगुरु करुणा-सिन्धु, अधम जनार बंधु, लोकनाथ लोकेर जीवन।हा हा प्रभु कोरो दया, देह मोरे पद छाया, एबे यश घुषुक त्रिभुवन॥ (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । श्रीगुरुचरण पद्म हिंदी में – अर्थ के साथ (1) श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म, वन्दो मुइ सावधान मते। याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥ आध्यात्मिक गुरु के चरणकमल ही एकमात्र साधन हैं जिनके द्वारा हम शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरणकमलों में अत्यन्त भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होता हूँ। उनकी कृपा से जीव भौतिक क्लेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है।  (2) गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा। श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति, ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥ मेरी एकमात्र इच्छा है कि उनके मुखकमल से निकले हुए शब्दों द्वारा अपनी चेतना को शुद्ध करूँ। उनके चरणकमलों में अनुराग ऐसी सिद्धि है जो समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है।  (3) चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥ वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिवय ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।  (4) श्रीगुरु करुणा-सिन्धु, अधम जनार बंधु, लोकनाथ लोकेर जीवन। हा हा प्रभु कोरो दया, देह मोरे पद छाया, एबे यश घुषुक त्रिभुवन॥  हे गुरुदेव, करूणासिन्धु तथा पतितात्माओं के मित्र! आप सबके गुरु एवं सभी लोगों के जीवन हैं। हे गुरुदेव! मुझ पर दया कीजिए तथा मुझे अपने चरणों की छाया प्रदान दीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है।

जय जय जगन्नाथ शचीर नन्दन – Jai Jai Jagannath Sachidananda

” जय जय जगन्नाथ शचीर नंदन ” नामक ये वैष्णव भजन वासुदेव घोष द्वारा लिखा गया हैं तथा उनका यह भजन वैष्णवो के बीच बहुत प्रसिद्ध एवम लोकप्रिय हैं। वे इस भजन के अंदर श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं एवम रूप का वर्णन कर रहे हैं । वासुदेव घोष श्री श्री निताई-गौरांग ( नित्यानंद प्रभु और चैतन्य महाप्रभु ) के बहुत घनिष्ट सहयोगी थे। वासुदेव घोष ने बंगाल में भक्ति का प्रचार करने के लिये अनेक वैष्णव भजन लिखे । उन्होंने भगवान गौरांग के बारे में कई गीत लिखे जो आज भी भक्तों द्वारा गाए जाते हैं ऐसा ही भजन हम आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं । जय जय जगन्नाथ शचीर नन्दन (1) जय जय जगन्नाथ शचीर नन्दन।त्रिभूवने करे जार चरण वन्दन।। (2) निलाचले शंख-चक्र-गदा-पद्म-धर।नदीया नगरे दण्ड-कमण्डलु-धर।। (3) केह बोले पूरबे रावण वधिला।गोलोकेर वैभव लीला प्रकाश करिला।। (4) श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार।हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।। (5) वासुदेव घोष बोले करि जोड हाथ।जेइ गौर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ।। जय जय जगन्नाथ शचीर नन्दन हिंदी में – अर्थ के साथ (1) जय जय जगन्नाथ शचीर नन्दन। त्रिभूवने करे जार चरण वन्दन।। जगन्नाथ मिश्र एवम शची देवी के प्रिय पुत्र की जय हो,जय हो। समस्त तीनो लोक उनके चरण कमल में वंदन करते हैं।  (2) निलाचले शंख-चक्र-गदा-पद्म-धर। नदीया नगरे दण्ड-कमण्डलु-धर।। नीलाचल में वे शंख, चक्र, गदा और कमल पुष्प धारण करते हैं, जबकि नदिया नगर में वे एक संन्यासी का डंडा और कमंडलु धारण किए रहते हैं। (3) केह बोले पूरबे रावण वधिला। गोलोकेर वैभव लीला प्रकाश करिला।।  ऐसा कहा गया हैं कि प्राचीन समय में भगवान रामचंद्र के रूप में, उन्होंने रावण का वध किया था।तब उसके पश्चात् भगवान कृष्ण के रूप में ,उन्होंने वैभव ऐश्वर्य पूर्ण गोलोक की लीलाएं प्रदर्शित की। (4) श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार। हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।।  अब वे पुन: भगवान गौरांग के रूप में आए हैं, गौर वर्ण अवतार श्री राधिका के प्रेम व परम आनंदित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामो तथा हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन का चारो ओर प्रसार किया हैं। (5) वासुदेव घोष बोले करि जोड हाथ। जेइ गौर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ।। वासुदेव घोष दोनो हाथ जोड़ कर कहते हैं ” वे जो गौर हैं, वही कृष्ण हैं, और वही भगवान जगन्नाथ हैं।”

यशोमति नन्दन ब्रजबर नागर – Yashomati Nandan

यशोमति नंदन नामक यह भजन को  ‘श्री नाम कीर्तन’ भी कहते हैं । यह  वैष्णव भजन भक्तिविनोद ठाकुर जी द्वारा रचित ग्रंथ गीतावाली से लिया गया हैं इसके रचिता श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी हैं।। यशोमति नन्दन ब्रजबर नागर – अर्थ के साथ (1) यशोमति नन्दन ब्रजबर नागर,गोकुल रंजन कान । गोपी पराण धन, मदन मनोहर,कालिया दमन विधान ।। श्री कृष्ण माता यशोदा के लाडले पुत्र, ब्रजभूमि के दिव्य प्रेमी,गोकुल के हर्ष ,कान ( कान्हा ,कृष्ण का उपनाम ), गोपियों के जीवन धन हैं।वे कामदेव तक के मन को चुरा लेते हैं और कालिया नाग को दण्ड देते हैं।। (2) अमल हरि नाम अमिय विलासा। विपिन पुरंदर ,नवीन नगर बर,वंशी बदन सुबासा ।। भगवान हरि के ये शुद्ध नाम मधुर,अमृतमय लीलाओं से ओतप्रोत हैं। कृष्ण ब्रज के बारह वनों के स्वामी हैं।वे नितयौवन  पूर्ण  हैं। और सर्वश्रेष्ठ प्रेमी हैं।वे सदैव वंशी बजाते रहते हैं और सर्वश्रेष्ठ वेषधारी हैं। (3) ब्रज जन पालन,असुर कुल नाशन,नन्द गोधन रखवाला। गोविन्द माधव ,नवनीत तस्कर, सुन्दर नन्द गोपाला ।। कृष्ण ब्रजवासियों के रक्षक , विभिन्न असुरकुली के संहारक ,नंद महाराज की गौवो के रखवाले तथा चरवाहे , गौवों ,भूमि तथा आध्यात्मिक इंद्रियों को आनंद देने वाले ,देवी लक्ष्मी के पति , माखन चोर तथा नंद महाराज के सुंदर ग्वालबाल हैं। (4) जामुन तट चर ,गोपी बसन हर ,रास रसिक, कृपामय । श्री राधावल्लभ, वृंदावन नटबर ,भक्ति विनोद आश्रय।। कृष्ण यमुना तट पर विचरण करते हैं।वे स्नान कर रही ब्रज युवतियों के चीर चुराते  हैं।वे रास नृत्य के रस में हर्षित होते हैं। वे अत्यंत दयालु हैं,वे श्रीमती राधारानी के प्रेमी तथा प्रिय हैं। वे वृंदावन के महान नर्तक तथा ठाकुर भक्तिविनोद के एकमात्र शरण हैं। (हरे कृष्ण महामंत्र) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

विभावरी शेष आलोक प्रवेश – Vibhavari Shesha

विभावरी शेष नामक यह भजन वृन्दावन में प्रतिदिन गुरु अष्टकम के बाद गाया जाता हैं। इस भजन की रचना ब्रम्हमध्व गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के महान आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने की हैं । इस भजन में भक्तिविनोद ठाकुर जी भगवान श्री कृष्ण के अनेक नामों का वर्णन बहुत ही मधुरता से करते हैं। विभावरी-शेष (1) विभावरी-शेष, आलोक-प्रवेश, निद्रा छाडि’ उठ जीव।बल हरि हरि, मुकुन्द मुरारी, राम-कृष्ण हयग्रीव ।। (2) नृसिंह वामन, श्रीमधुसूदन, ब्रजेन्दनंदन श्याम।पूतना-घातन, कैटभ-शातन, जय दाशरथि-राम।। (3) यशोदा-दुलाल, गोविन्द-गोपाल, वृन्दावन-पुरन्दर।गोपीप्रिय-जन, राधिका-रमण, भुवन-सुन्दरवर।। (4) रावणान्तकर, माखन-तस्कर, गोपीजन-वस्त्रहारी।व्रजेर राखाल, गोपवृन्दपाल, चित्तहारी वंशीधारी।। (5) योगीन्द्र-वंदन, श्रीनन्द-नन्दन, ब्रजजन भयहारी।नवीन नीरद, रूप मनोहर, मोहन-वंशीबिहारी।। (6) यशोदा-नन्दन, कंस-निसूदन, निकुंज रास विलासी।कदम्ब-कानन, रास परायण, वृन्दाविपिन-निवासी।। (7) आनन्द-वर्धन, प्रेम-निकेतन, फुलशर-योजक काम।गोपांगनागण, चित्त-विनोदन, समस्त-गुणगण-धाम ।। (8) यामुना-जीवन, केलि-परायण, मानस चन्द्र-चकोर।नाम-सुधारस, गाओ कृष्ण-यश, राख वचन मन मोर।। विभावरी शेष हिंदी में – अर्थ के साथ (1) विभावरी-शेष, आलोक-प्रवेश, निद्रा छाडि’ उठ जीव। बल हरि हरि, मुकुन्द मुरारी, राम-कृष्ण हयग्रीव ।।  रात्रि का अन्त  हो चुका है तथा सूर्योदय हो रहा है। सोती हुई जीवात्माओं जागो!तथा श्री हरि के नामो का जप करो । वे मुक्तिदाता हैं तथा मुर नामक असुर को मारनेवाले हैं।वे ही भगवान बलराम, भगवान कृष्ण तथा हयग्रीव हैं।। (2) नृसिंह वामन, श्रीमधुसूदन, ब्रजेन्दनंदन श्याम। पूतना-घातन, कैटभ-शातन, जय दाशरथि-राम।।  भगवान के नृसिंह अवतार की जय हो। वामनावतार की जय हो मधु  नामक  दैत्य को मरने वाले , ब्रजराज के पुत्र , श्याम  वर्णी ,वृन्दावन के परम भगवान,पूतना तथा कैटभ दैत्य का नाश करने वाले भगवान की जय हो। दशरथ पुत्र श्री रामचंद्र की जय हो।  (3) यशोदा-दुलाल, गोविन्द-गोपाल, वृन्दावन-पुरन्दर। गोपीप्रिय-जन, राधिका-रमण, भुवन-सुन्दरवर।।  माता यशोदा  के दुलारे वृन्दावन की गायों तथा गोपकुमारो के रक्षक एवम पालनकर्ता , गोपियों के परम प्रिय, राधारानी के संग विहार करने वाले ,तथा समग्र ब्रह्माण्ड में सर्वाधिक आकर्षक भगवान की जय।   (4) रावणान्तकर, माखन-तस्कर, गोपीजन-वस्त्रहारी। व्रजेर राखाल, गोपवृन्दपाल, चित्तहारी वंशीधारी।।  रावण के संहारक ,माखन चोर ,गोपियों के वस्त्र चुराने वाले , ब्रज की गायों के पालनहार, गोपकुमारों का निर्वाह करने वाले, चित्त, वंशी बजने वाले की जय हो।   (5) योगीन्द्र-वंदन, श्रीनन्द-नन्दन, ब्रजजन भयहारी। नवीन नीरद, रूप मनोहर, मोहन-वंशीबिहारी।। महान  योगियों द्वारा वन्दनीय , महाराज नंद के पुत्र ,समस्त व्रजवासियों के भय को हरने  वाले ,उनका सुन्दर रूप  वर्षा ऋतु के नवीन मेघ के समान अंगकति वाले मनोहर रूप के स्वामी वंशिवबिहारी की जय हो।     (6) यशोदा-नन्दन, कंस-निसूदन, निकुंज रास विलासी। कदम्ब-कानन, रास परायण, वृन्दाविपिन-निवासी।। वे यशोदा के पुत्र ,  कंस के संहारक , वृन्दावन के निकुंजो में दिव्य रस नृत्य का आनंद उठाने वाले हैं । (7) आनन्द-वर्धन, प्रेम-निकेतन, फुलशर-योजक काम। गोपांगनागण, चित्त-विनोदन, समस्त-गुणगण-धाम ।। वे सबके आनंद को बढाते हैं । वे भगवद प्रेमोन्माद के भंडार हैं। वे पुष्प रुपी बाण चलाने वाले कामदेव  ब्रजगोपिकायो के ह्रदयों को  आनंदित करने वाले वाले तथा समस्त दिव्य गुणों के आश्रय हैं।उनकी जय हो ।  (8) यामुना-जीवन, केलि-परायण, मानस चन्द्र-चकोर। नाम-सुधारस, गाओ कृष्ण-यश, राख वचन मन मोर।। वे यमुना मैया के जीवन  एवम प्राण  हैं । वे माधुर्य प्रेम में पारंगत हैं तथा चन्द्रमा रुपी मन में वे चकोर पक्षी के समान हैं। कृष्ण के यह पवित्र नाम अमृत्यमय हैं अतएव , कृपया कृष्ण का गुणगान करो तथा इस प्रकार , श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के वचनों का मान रखो।।

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