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सफला एकादशी व्रत कथा – Safala Ekadashi

युधिष्ठिर ने पूछा : स्वामिन् ! पौष मास के कृष्णपक्ष (गुज., महा. के लिए मार्गशीर्ष) में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता की पूजा की जाती है ? यह बताइये । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है । पौष मास के कृष्णपक्ष में ‘सफला’ नाम की एकादशी होती है । उस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए । जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है । राजन् ! ‘सफला एकादशी’ को नाम मंत्रों का उच्चारण करके नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा तथा जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों और धूप दीप से श्रीहरि का पूजन करे । ‘सफला एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता । नृपश्रेष्ठ ! अब ‘सफला एकादशी’ की शुभकारिणी कथा सुनो । चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी । राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे । उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था । परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था । उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया । वह सदा दुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था । अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । लुम्भक गहन वन में चला गया । वहीं रहकर उसने प्राय: समूचे नगर का धन लूट लिया । एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया । किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया । फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा । उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था । उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था । पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था । एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया । पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा । उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला । वह निष्प्राण सा हो रहा था । सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया । ‘सफला एकादशी’ के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा । दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई । फिर इधर उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लँगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया । वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था । राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल पर लौटा, तब तक सूर्यदेव अस्त हो गये । तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा: ‘इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों ।’ यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली । इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया । उस समय सहसा आकाशवाणी हुई: ‘राजकुमार ! तुम ‘सफला एकादशी’ के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया । इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया । तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता । राजन् ! इस प्रकार जो ‘सफला एकादशी’ का उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है । संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला एकादशी’ के व्रत में लगे रहते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है । महाराज! इसकी महिमा को पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है ।

उत्पत्ति एकादशी व्रत कथा – Utpatti Ekadashi

उत्पत्ति एकादशी का व्रत हेमन्त ॠतु में मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष ( गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक ) को करना चाहिए । इसकी कथा इस प्रकार है : युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई? इस संसार में वह क्यों पवित्र मानी गयी तथा देवताओं को कैसे प्रिय हुई? श्रीभगवान बोले : कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समय की बात है । सत्ययुग में मुर नामक दानव रहता था । वह बड़ा ही अदभुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओं के लिए भयंकर था । उस कालरुपधारी दुरात्मा महासुर ने इन्द्र को भी जीत लिया था । सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्ग से निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वी पर विचरा करते थे । एक दिन सब देवता महादेवजी के पास गये । वहाँ इन्द्र ने भगवान शिव के आगे सारा हाल कह सुनाया । इन्द्र बोले : महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोक से निकाले जाने के बाद पृथ्वी पर विचर रहे हैं । मनुष्यों के बीच रहना इन्हें शोभा नहीं देता । देव ! कोई उपाय बतलाइये । देवता किसका सहारा लें ? महादेवजी ने कहा : देवराज ! जहाँ सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षा में तत्पर रहने वाले जगत के स्वामी भगवान गरुड़ध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ । वे तुम लोगों की रक्षा करेंगे । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! महादेवजी की यह बात सुनकर परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ क्षीरसागर में गये जहाँ भगवान गदाधर सो रहे थे । इन्द्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की । इन्द्र बोले : देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है ! देव ! आप ही पति, आप ही मति, आप ही कर्त्ता और आप ही कारण हैं । आप ही सब लोगों की माता और आप ही इस जगत के पिता हैं । देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं । पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्यों के शत्रु हैं । मधुसूदन ! हम लोगों की रक्षा कीजिये । प्रभो ! जगन्नाथ ! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्य ने इन सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर स्वर्ग से बाहर निकाल दिया है । भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । दानवों का विनाश करनेवाले कमलनयन ! भक्तवत्सल ! देवदेवेश्वर ! जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये… रक्षा कीजिये । भगवन् ! शरण में आये हुए देवताओं की सहायता कीजिये । इन्द्र की बात सुनकर भगवान विष्णु बोले : देवराज ! यह दानव कैसा है ? उसका रुप और बल कैसा है तथा उस दुष्ट के रहने का स्थान कहाँ है ? इन्द्र बोले: देवेश्वर ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी के वंश में तालजंघ नामक एक महान असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था । उसका पुत्र मुर दानव के नाम से विख्यात है । वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओं के लिए भयंकर है । चन्द्रावती नाम से प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास करता है । उस दैत्य ने समस्त देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्गलोक से बाहर कर दिया है । उसने एक दूसरे ही इन्द्र को स्वर्ग के सिंहासन पर बैठाया है । अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं । जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ । उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं । देवताओं को तो उसने उनके प्रत्येक स्थान से वंचित कर दिया है । इन्द्र की यह बात सुनकर भगवान जनार्दन को बड़ा क्रोध आया । उन्होंने देवताओं को साथ लेकर चन्द्रावती नगरी में प्रवेश किया । भगवान गदाधर ने देखा कि “दैत्यराज बारंबार गर्जना कर रहा है और उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग रहे हैं ।’ अब वह दानव भगवान विष्णु को देखकर बोला : ‘खड़ा रह … खड़ा रह ।’ उसकी यह ललकार सुनकर भगवान के नेत्र क्रोध से लाल हो गये । वे बोले : ‘ अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओं को देख ।’ यह कहकर श्रीविष्णु ने अपने दिव्य बाणों से सामने आये हुए दुष्ट दानवों को मारना आरम्भ किया । दानव भय से विह्लल हो उठे । पाण्ड्डनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णु ने दैत्य सेना पर चक्र का प्रहार किया । उससे छिन्न भिन्न होकर सैकड़ो योद्धा मौत के मुख में चले गये । इसके बाद भगवान मधुसूदन बदरिकाश्रम को चले गये । वहाँ सिंहावती नाम की गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी । पाण्ड्डनन्दन ! उस गुफा में एक ही दरवाजा था । भगवान विष्णु उसीमें सो गये । वह दानव मुर भगवान को मार डालने के उद्योग में उनके पीछे पीछे तो लगा ही था । अत: उसने भी उसी गुफा में प्रवेश किया । वहाँ भगवान को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ । उसने सोचा : ‘यह दानवों को भय देनेवाला देवता है । अत: नि:सन्देह इसे मार डालूँगा ।’ युधिष्ठिर ! दानव के इस प्रकार विचार करते ही भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रुपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित थी । वह भगवान के तेज के अंश से उत्पन्न हुई थी । उसका बल और पराक्रम महान था । युधिष्ठिर ! दानवराज मुर ने उस कन्या को देखा । कन्या ने युद्ध का विचार करके दानव के साथ युद्ध के लिए याचना की । युद्ध छिड़ गया । कन्या सब प्रकार की युद्धकला में निपुण थी । वह मुर नामक महान असुर उसके हुंकारमात्र से राख का ढेर हो गया । दानव के मारे जाने पर भगवान जाग उठे । उन्होंने दानव को धरती पर इस प्रकार निष्प्राण पड़ा देखकर कन्या से पूछा : ‘मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था । किसने इसका वध किया है ?’ कन्या बोली: स्वामिन् ! आपके ही प्रसाद से मैंने इस महादैत्य का वध किया है। श्रीभगवान ने कहा : कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्म से तीनों लोकों के मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं। अत: तुम्हारे मन में जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँग लो । देवदुर्लभ होने पर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी। उसने कहा: ‘प्रभो !

प्रबोधिनी एकादशी व्रत कथा – Prabodhini Ekadashi

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देनेवाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’ ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं । ब्रह्महत्या आदि महान पाप भी ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं । हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है । इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ (भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ – श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है । इसलिए हे नारद ! तुमको भी विधिपूर्वक विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए । इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए और पूजा करनी चाहिए । रात्रि को भगवान के समीप गीत, नृत्य, कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए । ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए, भगवान को अर्ध्य देना चाहिए । इसका फल तीर्थ और दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है । जो गुलाब के पुष्प से, बकुल और अशोक के फूलों से, सफेद और लाल कनेर के फूलों से, दूर्वादल से, शमीपत्र से, चम्पकपुष्प से भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं । इस प्रकार रात्रि में भगवान की पूजा करके प्रात:काल स्नान के पश्चात् भगवान की प्रार्थना करते हुए गुरु की पूजा करनी चाहिए और सदाचारी व पवित्र ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर अपने व्रत को छोड़ना चाहिए । जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें इस दिन से पुनः ग्रहण करनी चाहिए । जो मनुष्य ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन विधिपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें अनन्त सुख मिलता है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं ।

रमा एकादशी व्रत कथा – Rama Ekadashi

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! मुझ पर आपका स्नेह है, अत: कृपा करके बताइये कि कार्तिक के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! कार्तिक (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार आश्विन) के कृष्णपक्ष में ‘रमा’ नाम की विख्यात और परम कल्याणमयी एकादशी होती है । यह परम उत्तम है और बड़े-बड़े पापों को हरनेवाली है । पूर्वकाल में मुचुकुन्द नाम से विख्यात एक राजा हो चुके हैं, जो भगवान श्रीविष्णु के भक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे । अपने राज्य पर निष्कण्टक शासन करनेवाले उन राजा के यहाँ नदियों में श्रेष्ठ ‘चन्द्रभागा’ कन्या के रुप में उत्पन्न हुई । राजा ने चन्द्रसेनकुमार शोभन के साथ उसका विवाह कर दिया । एक बार शोभन दशमी के दिन अपने ससुर के घर आये और उसी दिन समूचे नगर में पूर्ववत् ढिंढ़ोरा पिटवाया गया कि: ‘एकादशी के दिन कोई भी भोजन न करे ।’ इसे सुनकर शोभन ने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागा से कहा : ‘प्रिये ! अब मुझे इस समय क्या करना चाहिए, इसकी शिक्षा दो ।’ चन्द्रभागा बोली : प्रभो ! मेरे पिता के घर पर एकादशी के दिन मनुष्य तो क्या कोई पालतू पशु आदि भी भोजन नहीं कर सकते । प्राणनाथ ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी । इस प्रकार मन में विचार करके अपने चित्त को दृढ़ कीजिये । शोभन ने कहा : प्रिये ! तुम्हारा कहना सत्य है । मैं भी उपवास करुँगा । दैव का जैसा विधान है, वैसा ही होगा । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभन ने व्रत के नियम का पालन किया किन्तु सूर्योदय होते होते उनका प्राणान्त हो गया । राजा मुचुकुन्द ने शोभन का राजोचित दाह संस्कार कराया । चन्द्रभागा भी पति का पारलौकिक कर्म करके पिता के ही घर पर रहने लगी । नृपश्रेष्ठ ! उधर शोभन इस व्रत के प्रभाव से मन्दराचल के शिखर पर बसे हुए परम रमणीय देवपुर को प्राप्त हुए । वहाँ शोभन द्वितीय कुबेर की भाँति शोभा पाने लगे । एक बार राजा मुचुकुन्द के नगरवासी विख्यात ब्राह्मण सोमशर्मा तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते हुए मन्दराचल पर्वत पर गये, जहाँ उन्हें शोभन दिखायी दिये । राजा के दामाद को पहचानकर वे उनके समीप गये । शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा को आया हुआ देखकर शीघ्र ही आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम किया । फिर क्रमश : अपने ससुर राजा मुचुकुन्द, प्रिय पत्नी चन्द्रभागा तथा समस्त नगर का कुशलक्षेम पूछा । सोमशर्मा ने कहा : राजन् ! वहाँ सब कुशल हैं । आश्चर्य है ! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा । बताओ तो सही, आपको इस नगर की प्राप्ति कैसे हुई? शोभन बोले : द्विजेन्द्र ! कार्तिक के कृष्णपक्ष में जो ‘रमा’ नाम की एकादशी होती है, उसीका व्रत करने से मुझे ऐसे नगर की प्राप्ति हुई है । ब्रह्मन् ! मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया था, इसलिए मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर स्थायी नहीं है । आप मुचुकुन्द की सुन्दरी कन्या चन्द्रभागा से यह सारा वृत्तान्त कहियेगा । शोभन की बात सुनकर ब्राह्मण मुचुकुन्दपुर में गये और वहाँ चन्द्रभागा के सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया । सोमशर्मा बोले : शुभे ! मैंने तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा । इन्द्रपुरी के समान उनके दुर्द्धर्ष नगर का भी अवलोकन किया, किन्तु वह नगर अस्थिर है । तुम उसको स्थिर बनाओ । चन्द्रभागा ने कहा : ब्रह्मर्षे ! मेरे मन में पति के दर्शन की लालसा लगी हुई है । आप मुझे वहाँ ले चलिये । मैं अपने व्रत के पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाऊँगी । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! चन्द्रभागा की बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वत के निकट वामदेव मुनि के आश्रम पर गये । वहाँ ॠषि के मंत्र की शक्ति तथा एकादशी सेवन के प्रभाव से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली । इसके बाद वह पति के समीप गयी । अपनी प्रिय पत्नी को आया हुआ देखकर शोभन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उसे बुलाकर अपने वाम भाग में सिंहासन पर बैठाया । तदनन्तर चन्द्रभागा ने अपने प्रियतम से यह प्रिय वचन कहा: ‘नाथ ! मैं हित की बात कहती हूँ, सुनिये । जब मैं आठ वर्ष से अधिक उम्र की हो गयी, तबसे लेकर आज तक मेरे द्वारा किये हुए एकादशी व्रत से जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभाव से यह नगर कल्प के अन्त तक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकार के मनोवांछित वैभव से समृद्धिशाली रहेगा ।’ नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार ‘रमा’ व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रुप और दिव्य आभरणों से विभूषित हो अपने पति के साथ मन्दराचल के शिखर पर विहार करती है । राजन् ! मैंने तुम्हारे समक्ष ‘रमा’ नामक एकादशी का वर्णन किया है । यह चिन्तामणि तथा कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है ।

पापांकुशा एकादशी व्रत कथा – Papankusha Ekadashi

युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! अब आप कृपा करके यह बताइये कि आश्विन के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है और उसका माहात्म्य क्या है ? भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पापांकुशा’ के नाम से विख्यात है । वह सब पापों को हरनेवाली, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीर को निरोग बनानेवाली तथा सुन्दर स्त्री, धन तथा मित्र देनेवाली है । यदि अन्य कार्य के प्रसंग से भी मनुष्य इस एकमात्र एकादशी को उपास कर ले तो उसे कभी यम यातना नहीं प्राप्त होती । राजन् ! एकादशी के दिन उपवास और रात्रि में जागरण करनेवाले मनुष्य अनायास ही दिव्यरुपधारी, चतुर्भुज, गरुड़ की ध्वजा से युक्त, हार से सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान विष्णु के धाम को जाते हैं । राजेन्द्र ! ऐसे पुरुष मातृपक्ष की दस, पितृपक्ष की दस तथा पत्नी के पक्ष की भी दस पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं । उस दिन सम्पूर्ण मनोरथ की प्राप्ति के लिए मुझ वासुदेव का पूजन करना चाहिए । जितेन्द्रिय मुनि चिरकाल तक कठोर तपस्या करके जिस फल को प्राप्त करता है, वह फल उस दिन भगवान गरुड़ध्वज को प्रणाम करने से ही मिल जाता है । जो पुरुष सुवर्ण, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छाते का दान करता है, वह कभी यमराज को नहीं देखता । नृपश्रेष्ठ ! दरिद्र पुरुष को भी चाहिए कि वह स्नान, जप ध्यान आदि करने के बाद यथाशक्ति होम, यज्ञ तथा दान वगैरह करके अपने प्रत्येक दिन को सफल बनाये । जो होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म करनेवाले हैं, उन्हें भयंकर यम यातना नहीं देखनी पड़ती । लोक में जो मानव दीर्घायु, धनाढय, कुलीन और निरोग देखे जाते हैं, वे पहले के पुण्यात्मा हैं । पुण्यकर्त्ता पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं । इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, मनुष्य पाप से दुर्गति में पड़ते हैं और धर्म से स्वर्ग में जाते हैं । राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार ‘पापांकुशा एकादशी’ का माहात्म्य मैंने वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो?

भज गौरांगा – Bhaj Gauranga Kaho Gauranga

भज गौरांगा, कहो गौरंगा भज गौरांगा, कहो गौरंगा,लहा गौरांगेरा नाम रे।जेई जना गौरंगा भाजे ,सेई होय अमारा प्राण रे। (1) गौरांगा बुलियाँ दूबाहू तुलिया,नचियाँ नचियाँ बेराओ रे। (2) गौराङ्ग भजिले, गौराङ्ग जपिले,होय दुखेर अबसान रे॥

श्री ब्रह्म संहिता- Śrī Brahma-saṁhitā Hindi

श्री ब्रह्म संहिता (1) ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्॥ (2) चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्षलक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (3) वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षंबर्हावतं समसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्।कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (4) आलोलचन्द्रकलसद्ववनमाल्यवंशीरत्नागदं प्रणयकेलिकलाविलासम्।श्यामं त्रिभंगललितं नियतप्रकाशंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (5) अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्तिपश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति।आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (6) अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्‌आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (7) पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्योवायोरथापि मनसो मुनिङ्गवानाम्।सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (8) एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं-यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः।अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (9) यभ्दावभावितधियो मनुजास्तथैवसम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः।सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः स्तुवन्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (10) आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्‌ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (11) प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेनसन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (12) रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्‌नानावतारमकरोद्‌ भुवनेषु किन्तु।कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान्‌ योगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (13) यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-कोटिष्वशेषवसुधादि विभूतिभिन्नम्।तद्‌ ब्रह्म निष्कलमनंतमशेषभूतंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (14) माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूतेत्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना।सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वं विशुद्धसत्त्वंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (15) आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनःसुयः प्राणिनां प्रतिफलन्‌ स्मरतामुपेत्य।लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्रंगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (16) गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्यदेवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येनगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (17) सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेकाछायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दूर्गा।इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (18) क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्‌सञ्जायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः।यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्‌गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (19) दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्यदीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा।यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभातिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (20) यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः।आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्तिगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (21) यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः।विष्णुर्महान्‌ स इह यस्य कलाविशेषोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (22) भास्वान्‌ यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजःस्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र।ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्तागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (23) यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भद्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः।विघ्नान्‌ विहन्तुमलमस्य जगत्रयस्यगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (24) अग्निर्मही गगनमम्बु मरुद्दिश श्चकालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि।यस्माद्‌ भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं चगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (25) यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणांराजा समस्तसुरमुर्तिरशेषतेजाः।यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रोगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (26) धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसिब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः।यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावागोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (27) यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-बन्धानुरूपफलभाजनमातनोती।कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजांगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (28) यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीतिवात्सल्यमोहगुरुगौरवसेवयभावैः।स िञ्चन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेतेगोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ (29) श्रियः कान्ताः कान्तः परमापुरुषः कल्पतरवोद्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।कथा गानं नाटयं गमनमपि वंशी प्रियसखीचिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च॥ स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीभ्यश्च सुमहान्‌निमेषार्धाख्यो वाव्रजति न हि यत्रापि समयः।भजे श्वेतद्वीपं तमहमिह गोलोकमिति यंविदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये॥

Mam Man Mandire

मम मन मंदिरे – Mam Man Mandire Krishna Murari

‘मम मन मंदिरे रहो निशिदिन कृष्ण मुरारि’ नामक यह भजन वैष्णवो को अत्यंत प्रिय हैं, तथा इस भजन की रचना ब्रह्ममध्व गौडिया संप्रदाय के महान आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने की हैं। मम मन मंदिरे (1) मम मन मंदिरे रहो निशिदिन।कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ (2) भक्ति प्रिती मालाचन्दन।तुमि निओ हे निओ चितोनन्दन॥ (3) जीवन मरण तोर पूजा निवेदन।सुदर हे मन हारि॥ (4) ऐसो नन्दकुमार आर नन्दकुमार।ह’बे प्रेम प्रदिपे आरतिक तोमार॥ (5) नयने यमुना जरे अनिबार।तोमार विरहे गिरिधारी॥ (6) वंदन गनेत ताबे बजुक जीवन।कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ मम मन मंदिरे रहो निशिदिन कृष्ण मुरारि हिंदी में -अर्थ के साथ (1) मम मन मंदिरे रहो निशिदिन। कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ कृपया, दिन और रात दोनों समय, मेरे मन के मन्दिर में वास कीजिए। (2) भक्ति प्रिती मालाचन्दन। तुमि निओ हे निओ चितोनन्दन॥ भक्ति, प्रेम, पुष्प मालाएँ और चंदन कृपया स्वीकार कीजिए। हे हरि! मन को प्रसन्नचित करने वाले। (3) जीवन मरण तोर पूजा निवेदन। सुदर हे मन हारि॥ मैं जन्म या मृत्यु में, इन वस्तुओं को अर्पित करके आपकी आराधना करता हूँ, हे सुन्दर, हे मन को आकर्षित करने वाले मनोहारी! (4) ऐसो नन्दकुमार आर नन्दकुमार। ह’बे प्रेम प्रदिपे आरतिक तोमार॥ आओ! हे नन्द-नन्दन, मैं अपने प्रेम रूपी दीये से आपकी आरती उतारूँगा। (5) नयने यमुना जरे अनिबार। तोमार विरहे गिरिधारी॥ हे गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले गिरधारी! आपके विरह में यमुना नदी का जल निरन्तर मेरे नेत्रों से जलप्रपात के समान गिरता है। (6) वंदन गनेत ताबे बजुक जीवन। कृष्ण मुरारि श्रीकृष्ण मुरारि॥ हे कृष्ण मुरारि, श्रीकृष्ण मुरारि! मेरा जीवन केवल आपका यश गान करने में तल्लीन होकर वयतीत हो जाए

मंगला चरण – Mangla Charan Hindi

मंगला चरण (1) ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले।स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥ (2) वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपद-कमलं श्रीगुरुन्‌ वैष्णवांश्चश्रीरूपं साग्रजातं सहगण-रघुनाथान्वितं तं सजीवम्।साद्वैतं सावधूतं परिजन सहितं कृष्ण-चैतन्य-देवम्‌श्रीराधा-कृष्ण-पादान्‌सहगण-ललिता-श्रीविशाखान्विताश्च॥ (3) हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते।गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते॥ (4) तप्तकाञ्चनगौराङ्गी राधेवृन्दावनेश्वरी।वृषभानुसुते देवी प्रणमामी हरिप्रिये॥ (5) वाञ्छा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥ (6) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द॥ (7) हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ (8) नम ॐ विष्णु पादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले।श्रीमते भक्तिवेदान्त स्वामिन् इति नामिने।।नमस्ते सारस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे।निर्विशेष शून्यवादी पाश्चात्य देश तारिणे।।

श्री जगन्नाथाष्टकम – Shree Jagannath Ashthakam

 श्री जगन्नाथाष्टकम श्री जगन्नाथ जी को अत्यंत प्रिय हैं तथा भक्तों के द्वारा बड़े प्रेम से गाया जाता हैं। इसकी रचना श्री आदि शंकरा आचार्य जी ने की हैं। श्री जगन्नाथाष्टकम (1) कदाचित कालिन्दितट-विपिन-सङ्गीतक रवो मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः। रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। (2) भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे दुकूलं नेत्रान्ते सहचरि-कटाक्षं विदधते। सदा श्रीमद्‌वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (3) महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे वसन्‌प्रासादान्त सहज-बलभद्रेण बलिना। सुभद्रा-मध्यस्थः सकल-सुर-सेवावसरदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (4) कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः। सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (5) रथारूढो गच्छन्‌ पथि मिलित-भूदेव पटलैःस्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः।दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतयाजगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (6) परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि। रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (7) न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम्। सदाकाले काले प्रमथपतिना गीतचरितो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। (8) हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते!। अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ (9) जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत्‌ प्रयतः शुचि। सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥ श्री जगन्नाथाष्टकम हिंदी में -अर्थ के साथ (1) कदाचित कालिन्दितट-विपिन-सङ्गीतक रवो  मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः।  रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। भगवान्‌ जगन्नाथ कभी-कभी, कालिंदी नदी के तटों पर समस्त कुंजो में, संगीत वादन करते हुए (बजाते हुए) और गाते हुए, संगीतात्मक मधुर ध्वनि उत्पन्न करते है। वे,  व्रज बालाओं के कमल सदृश मुखों के अमृत रस का आस्वादन करते हुए, महान हर्षोल्लास का अनुभव करते हुए, एक भौंरे के समान हैं। उनके चरण कमल, लक्ष्मीजी, शिवजी, ब्रह्माजी, इन्द्र एवं गणेश जी जैसे महान वयक्तियों द्वारा पूजे जाते हैं। कृपया, ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ।  (2) भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे  दुकूलं नेत्रान्ते सहचरि-कटाक्षं विदधते।  सदा श्रीमद्‌वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ अपने बायें हाथ में वे एक बाँसुरी धारण किए रहते हैं, अपने शीश पर एक मोरपंख, और अपने कूल्हों के चारों ओर एक उत्तम सिल्क का वस्त्र। अपने नेत्रों के कोनों से, वे अपने प्रिय साथियों पर तिरछी नजरों से दृष्टिपात करते हैं। वे श्री वृन्दावन में रहते हुए जो लीलाएँ करते हैं, उन्हें वे अत्याधिक प्रिय हैं। कृपया, ब्रहाण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ।  (3) महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे वसन्‌ प्रासादान्त सहज-बलभद्रेण बलिना।  सुभद्रा-मध्यस्थः सकल-सुर-सेवावसरदो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ महान समुद्र के तट पर एक विशाल महल है, जो स्वर्ण की कांति से चमकता है, और जिसके शिखर पर एक ऊँची मंदिर की मीनार है जो एक चमकदार नीले नीलमणि या नीलम जैसे पर्वत के समान प्रतीत होती है। उनके अन्दर वास करते हुए भगवान्‌ जगन्नाथ, अपने महान भाई बलभद्र, और उन दोनों के मध्य उनकी बहन सुभद्रा के साथ, विभिन्न भक्ति कार्य सम्पन्न करने का, समस्त दैवी आत्माओं को, सेवाओं अवसर प्रदान करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हो। (4) कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो  रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः।  सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ वे अहैतुकी कृपा के अथाह सागर हैं, और उनका सुन्दर वर्ण काले गहरे वर्षा के बादलों के झुंड के समान हैं। वे अपनी प्रेयसी देवी लक्ष्मी द्वारा दिए गए कठोर दंड या कटु आलोचना के स्नेहपूर्ण शब्द सुनकर अत्याधिक सुख-आनन्द प्राप्त करते हैं। उनका मुख एक बेदाग (दोष रहित) पूर्ण खिले हुए कमल पुष्प के समान है। वे श्रेष्ठ देवी देवताओं एवं साधू-संतों द्वारा पूजे जाते हैं, और उनका चरित्र व उनके कार्यकलाप सर्वोच्च मूर्तिमान उपनिषदों द्वारा गीत रूप में गाकर महिमान्वित किए जाते हैं। कृपया ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हों। (5) रथारूढो गच्छन्‌ पथि मिलित-भूदेव पटलैः स्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः। दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतया जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ जैसे ही भगवान्‌ अपनी रथ यात्रा के रथ पर चढ़ते हैं और सड़क पर जुलूस के रूप में आगे बढ़ते हैं, वहाँ संत, ब्रह्मणों की विशाल सभाओं द्वारा गाए गये गीतों और जोर से की गई प्रार्थनाओं का निरंतर उच्चारण चलता रहता है। उनके स्तुति-मंत्र सुनकर, भगवान्‌ जगन्नाथ अनुकूल रूप से उनकी ओर झुक जाऐंगें। वे दया के सागर हैं, और समस्त लोकों के सच्चे मित्र हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, अपनी संगिनी लक्ष्मीजी सहित, जिनका जन्म अमृत के सागर से हुआ था, कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों।  (6) परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो  निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि।  रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥  वे परब्रह्म (परम आध्यात्मिक वास्तविकता या सत्य) के शीश पर अलकृंत आभूषण हैं। उनके नेत्र नीले कमल पुष्प की कर्णिकाओं के समान हैं, और वे नीलाचल मन्दिर में वास करते हैं जो एक नीलमणि पर्वत के सदृश प्रतीत होता है। उनके चरण कमल भगवान्‌ अनंतदेव के शीश पर रखे हुए हैं। वे दिवय प्रेममयी अमृत रसों की धारा से भाव विह्वल हैं, और वे केवल श्रीमती राधारानी के समधुर चित्तकर्षक दिवय रूप के आलिंगन द्वारा ही प्रसन्न होते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे भी दृष्टिगोचर हों।  (7) न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं  न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम्।  सदाकाले काले प्रमथपतिना गीतचरितो  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे।। मैं, निश्चय ही एक राज्य प्राप्त करने के लिए प्रार्थना नहीं करता हूँ, न ही स्वर्ण, रत्न माणिक्य और धन-सम्पत्ति के लिए। मैं एक सुशील एवं सुन्दर पत्नी नहीं माँगता हूँ। जिसको पाने की सभी साधारण मनुष्य अभिलाषा करते हैं। मैं तो केवल ब्रह्माण्ड के उस स्वामी के लिए प्रार्थना करता हूँ, जिसकी महिमा भगवान्‌ शिव द्वारा युगों-युगों से गाई जा रही है, वे कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों।  (8) हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते  हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते!।  अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं  जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ हे देवी-देवताओं के स्वामी! कृपया शीघ्र ही इस वयर्थ, निरर्थक भौतिक अस्तित्व को दूर ले जाइये जिसमें मैं फँसा हुआ जी रहा हूँ। हे यदुओं के स्वामी! कृपया मेरे पापपूर्ण कार्यो के फलों के असीमित संग्रह को नष्ट कर दीजिए। अहो! यह निश्चित है कि भगवान्‌ जगन्नाथ अपने चरण कमल का आशीर्वाद उन लोगों को प्रदान करते हैं जो स्वयं को विनम्र व असहाय अनुभव करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों।  (9) जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत्‌ प्रयतः शुचि।  सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥ उस आत्मनियंत्रित एवम गुणवान्‌ व सद्‌गुणी व्यक्ति जो भगवान्‌ जगन्नाथ जी को महिमान्वित करने वाले इन आठ श्लोकों का गान करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है (उसके समस्त पाप धुल जाते हैं), और वह उचित रीति द्वारा स्वतः ही भगवान्‌ विष्णु के धाम को प्राप्त करता है।

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